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श्री स्थानांग सूत्र
२. वैक्रिय शरीर जिस शरीर से विविध अथवा विशिष्ट प्रकार की क्रियाएं होती हैं वह वैक्रिय शरीर कहलाता है। जैसे एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटे शरीर से बड़ा शरीर बनाना और बड़े से छोटा बनाना, पृथ्वी और आकाश पर चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य अदृश्य रूप बनाना आदि । वैक्रिय शरीर दो प्रकार का है - १. औपपातिक वैक्रिय शरीर २. लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर ।
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१. औपपातिक वैक्रिय शरीर जन्म से ही जो वैक्रिय शरीर मिलता है वह औपपातिक वैक्रिय शरीर है। देवता और नारकी के नैरिये जन्म से ही वैक्रिय शरीरधारी होते हैं।
२. लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर तप आदि द्वारा प्राप्त लब्धि विशेष से प्राप्त होने वाला वैक्रिय शरीर लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर है। मनुष्य और तिर्यंच में लब्धि प्रत्यय वैक्रिय शरीर होता है।
३. आहारक शरीर - प्राणी दया, तीर्थंकर भगवान् की ऋद्धि का दर्शन, नये ज्ञान की प्राप्ति तथा संशय निवारण आदि प्रयोजनों से चौदह पूर्वधारी मुनिराज, अन्य क्षेत्र ( महाविदेह क्षेत्र) में विराजमान तीर्थंकर भगवान् के समीप भेजने के लिये, लब्धि विशेष से अतिविशुद्ध स्फटिक के सदृश एक हाथ का जो पुतला निकालते हैं वह आहारक शरीर कहलाता है। उक्त प्रयोजनों के सिद्ध हो जाने पर वे मुनिराज उस शरीर को छोड़ देते हैं ।
४. तैजस शरीर - तेज: पुद्गलों से बना हुआ शरीर तैजस शरीर कहलाता है। प्राणियों के शरीर में विद्यमान उष्णता से इस शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है। यह शरीर आहार का पाचन करता है। तपोविशेष से प्राप्त तैजसलब्धि का कारण भी यही शरीर है।
५. कार्मण शरीर - कर्मों से बना हुआ शरीर कार्मण कहलाता है । अथवा जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए आठ प्रकार के कर्म पुद्गलों को कार्मण शरीर कहते हैं। यह शरीर ही सब शरीरों का बीज है अर्थात् मूल कारण है।
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पाँचों शरीरों के इस क्रम का कारण यह है कि आगे आगे के शरीर पिछले की अपेक्षा प्रदेश बहुल (अधिक प्रदेश वाले) हैं एवं परिमाण में सूक्ष्मतर हैं। तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। इन दोनों शरीरों के साथ ही जीव मरण देश को छोड़ कर उत्पत्ति स्थान को जाता है। अर्थात् ये दोनों शरीर परभव में जाते हुए जीव के साथ ही रहते हैं मोक्ष में जाते समय ये दोनों शरीर भी छूट जाते हैं।
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उपदिष्ट और अनुमत स्थान
पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवइ तंजहा- दुआइक्खं, दुविभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं । पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुगमं भवइ तंजहा - सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं । पंच ठाणाई
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