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________________ Jain Education International 0000 हालिद्दा सुविकल्ला । तित्ता कडुया कसाया अंबिला महुरा एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं । पंच सरीरगा पण्णत्ता तंजहा - ओरालिए, वेडव्विए, आहारए, तेयए, कम्मए । ओरालियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ता तंजहा - किण्हे जाव सुक्किल्ले, तित्ते जाव महुरे, एवं जाव कम्मगसरीरे । सव्वे वि णं बायरबोंदिधरा कलेवरा पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मगसरीरे-कार्मण शरीर, बायरबोंदिधरा-बादर शरीर वाले, कलेवरा - कलेवर । भावार्थ- नैरयिक जीवों के शरीर पांच वर्ण वाले और पांच रस वाले कहे गये हैं यथा - कृष्णकाला, नीला, लोहित - लाल, हारिद्र- पीला और शुक्ल सफेद । पांच रस यथा तिक्त - तीखा कड़वा, कषैला आम्ल औदारिक, वैक्रिय, खट्टा और मीठा ; पांच शरीर कहे गये हैं यथा आहारक, तैजस और कार्मण । औदारिक शरीर पांच वर्ण वाला और पांच रस वाला कहा गया है यथा- कृष्ण यावत् शुक्ल और तिक्त यावत् मधुर । इसी तरह कार्मण शरीर तक सब पांचों शरीर पांच वर्ण और पांच रस वाले हैं । सब बादर शरीर वाले कलेवर पांच वर्ण वाले पांच रस वाले दो . गंध वाले और आठ स्पर्श वाले होते हैं । विवेचन शरीर जो उत्पत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है। तथा शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होता है वह शरीर कहलाता है। शरीर के पाँच भेद - १. औदारिक शरीर २. वैक्रिय शरीर ३. आहारक शरीर ४. तैजस शरीर ५. कार्मण शरीर । १.. औदारिक शरीर उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है। तीर्थंकर, गणधरों का शरीर प्रधान पुद्गलों से बनता है और सर्व साधारण का शरीर स्थूल असार पुद्गलों से बना हुआ होता है। अन्य शरीरों की अपेक्षा अवस्थित रूप से विशाल अर्थात् बड़े परिमाण वाला होने से यह औदारिक शरीर कहा जाता है। वनस्पति काय की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक सहस्र (हजार) योजन की अवस्थित अवगाहना है। अन्य सभी शरीरों की अवस्थित अवगाहना इससे कम है। वैक्रिय शरीर की उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा अनवस्थित अवगाहना एक लाख योजन की है । परन्तु भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अवगाहना तो पांच सौ धनुष से ज्यादा नहीं है। अन्य शरीरों की अपेक्षा अल्प प्रदेश वाला तथा परिमाण में बड़ा होने से यह औदारिक शरीर कहलाता है। मांस रुधिर अस्थि आदि से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है । औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंच के होता है। =P स्थान ५ उद्देशक १ - For Personal & Private Use Only - ११ - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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