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श्री स्थानांग सूत्र
है वैसा यहां कह देना चाहिए । यावत् जीव कर्मों के सहारे ठहरा हुआ है । अजीव जीवों द्वारा संगृहीत यानी स्वीकृत हैं जीव कर्मों के द्वारा संगृहीत यानी बद्ध है।
विवेचन - स्पर्श आठ - १. कर्कश - पत्थर जैसा कठोर स्पर्श कर्कश कहलाता है। २. मृदु - मक्खन की तरह कोमल स्पर्श मृदु कहलाता है। ३. लघु- जो हल्का हो उसे लघु कहते हैं। ४. गुरु - जो भारी हो वह गुरु कहलाता है। ५.स्निग्ध - चिकना स्पर्श स्निग्ध कहलाता है। ६. रूक्ष - रूखे पदार्थ का स्पर्श रूक्ष कहलाता है।
७.शीत - ठण्डा स्पर्श शीत कहलाता है। . ८. उष्ण - अग्नि की तरह उष्ण (गर्म) स्पर्श को उष्ण कहते हैं।
लोकस्थिति - पृथ्वी, जीव, पुद्गल आदि लोक जिन पर ठहरा हुआ है उन्हें लोकस्थिति कहते हैं। वे आठ हैं -
१. आकाश - तनुवात और घनवात रूप दो तरह का वायु आकाश के सहारे ठहरा हुआ है। आकाश को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती। उसके नीचे कुछ नहीं है। .. २. वात- घनोदधि अर्थात् पानी वायु पर स्थिर है।
३. घनोदधि - रत्नप्रभा आदि पृथ्वियां घनोदधि पर ठहरी हुई हैं। यद्यपि ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी जहां सिद्ध क्षेत्र है, घनोदधि पर ठहरी हुई नहीं है, उसके नीचे आकाश ही है, तो भी बाहुल्य के कारण यही कहा जाता है कि पृथ्वियां घनोदधि पर ठहरी हुई हैं।
४. पृथ्वी- पृथ्वियों पर त्रस और स्थावर जीव ठहरे हैं।
५. जीव-शरीर आदि पुद्गल रूप अजीव जीवों का आश्रय लेकर ठहरे हुए हैं, क्योंकि वे सब जीवों में स्थित हैं।
६. कर्म - जीव कर्मों के सहारे ठहरा हुआ है, क्योंकि संसारी जीवों का आधार उदय में नहीं आए हुए कर्म पुद्गल ही हैं। उन्हीं के कारण वे यहां ठहरे हुए हैं। अथवा जीव कर्मों के आधार से ही नरकादि गति में स्थिर हैं।
७. मन और भाषा वर्गणा आदि के परमाणुओं के रूप में अजीव जीवों द्वारा संगृहीत (स्वीकृत) हैं। ८. जीव कर्मों के द्वारा संगृहीत (बद्ध) हैं।
पांचवें छठे बोल में आधार आधेय भाव की विवक्षा है और सातवें आठवें बोल में संग्राह्य संग्राहक भाव की विवक्षा है। यही इनमें भेद है। यों संग्राह्य संग्राहक भाव में अर्थापत्ति से आधाराधेय भाव आ ही जाता है।
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