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________________ स्थान८ २१५ है। इससे विपरीत जो साधक हृदय से विनयशील बन कर अपने गुरु के समक्ष सभी दोषों को प्रकट कर आलोचना कर लेता है। वह परम शांति को प्राप्त होता है। आलोचना करने से साधक को आठ गुणों का लाभ होता है - लहुयाल्हाइयजणणं अप्पपरणियत्ति अज्जवं सोही। दुक्करकरणं आढा, णिस्सल्लत्तं च सोहिगुणा॥ - जैसे भारवाहक भार उतारने से हलका होता है वैसे ही आलोचक पाप कर्मों से हलका होता है तथा आह्लाद-प्रमोद भाव (आनंद) की वृद्धि होती है। स्व और पर आत्मा की निवृत्ति-आलोचना से स्वयं पाप से छूटता है और उसे देख कर अन्य भी आलोचना करने को तैयार होते हैं। प्रकट रूप से दोष कहने से सरलता आती है तथा अतिचार मल के धोने से आत्मा की शुद्धि होती है। आलोचना करना अत्यंत दुष्कर है अत: वह दुष्कर साधना करने में समर्थ हो जाता है। आलोचना से साधक आदरणीय और निःशल्य होता है। ये आलोचना करने के आठ गुण हैं। इन आठ गुणों से संपन्न जीव भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। संवर-असंवर, आठ स्पर्श अट्ठविहे संवरे पणणते तंजहा - सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, मणसंवरे, वयसंवरे, कायसंवरे । अट्ठविहे असंवरे पण्णत्ते तंजहा - सोइंदियअसंवरे जाव कायअसंवरे । अट्ठ फासा पण्णत्ता तंजहा - कक्खडे, मउए, गरुए, लहुए, सीए, उसिणे, णिद्धे, लुक्खे। लोक स्थिति अट्ठविहा लोगठिई पण्णत्ता तंजहा - आगास पइट्ठिए वाए, वायपइटिए उदही एवं जहा छटाणे जाव जीवा कम्मपट्ठिया अजीवा, जीव संग्गहीया जीवा कम्मसंग्गहीया॥८६॥ कठिन शब्दार्थ - कक्खडे - कर्कश, मउए - मृदु, गरुए - गुरु, लहुए - लघु, णिद्धे- स्निग्ध, लुक्खे - रूक्ष, संग्गहीया - संगृहीत । ___ भावार्थ - आठ प्रकार का संवर कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय संवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संवर मन संवर, वचन संवर, कायसंवर । आठ प्रकार का असंवर कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् कायअसंवर । आठ स्पर्श कहे गये हैं यथा - कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत-ठंडा, उष्ण स्निग्ध, रूक्ष । आठ प्रकार की लोकस्थिति कही गई हैं यथा - वायु आकाश प्रतिष्ठित है यानी आकाश के सहारे ठहरा हुआ है । घनोदधि यानी पानी वायु पर स्थिर है । इस प्रकार जैसे छठे ठाणे में कथन किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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