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________________ २१४ श्री स्थानांग सूत्र .000000000000000000000000000000000000000000000000000 यहाँ यथासमय मर कर बहुत ऋद्धि वाले तथा लम्बी स्थिति वाले ऊंचे देवलोक में उत्पन्न होता है । वह वहाँ महर्द्धिक यावत् लम्बी स्थिति वाला देव होता है। उसका वक्षस्थल हारों से सुशोभित होता है, कड़े आदि बहुत से आभूषणों से उसके हाथ भरे रहते हैं । वह अंगद, कुण्डल, मुकुट आदि सभी आभूषणों से मण्डित होता है, उसके हाथों में विचित्र आभूषण होते हैं । उसके विचित्र वस्त्र और भूषण होते हैं । विचित्र मालाओं का मुकुट होता है । शुभ और बहुमूल्य वस्त्र पहने हुए होता है । शुभ और श्रेष्ठ चन्दन आदि का लेप किये होता है । भास्वर शरीर वाला होता है । लम्बी लटकती हुई वनमाला को धारण किये होता है । दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य दयुति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि यानी कान्ति, दिव्य तेज, दिव्य लेश्या, इन सब के द्वारा वह दसों दिशाओं को उदयोतित एवं प्रकाशित करता हुआ विविध प्रकार के नाटय, गीत और ताल, घन, मृदङ्ग आदि वादिंत्रों के साथ दिव्य भोगों को भोगता है । उसकी बाहरी और आभ्यन्तर परिषदा के सभी देव देवी आदि परिवार वाले उसका सन्मान करते हैं और उसे अपना स्वामी समझते हैं । बैठने के लिए उसे बहुमूल्य आसन देते हैं । जब वह बोलने लगता है तो चार पांच देव एक दम खड़े होकर कहते हैं कि हे देवं ! और कहिए, और कहिए । ___वह वहां की आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर उस देवलोक से चव कर इस मनुष्य लोक में ऋद्धि सम्पन्न और सब लोगों के सन्माननीय ऊंचे कुलों में जन्म लेता है । इस प्रकार के ऊंचे कुलों में पुरुष रूप से जन्म लेता है । वह पुरुष होकर सुरूप यानी अच्छे रूप वाला अच्छे वर्ण वाला, अच्छी गन्ध वाला, अच्छे रस वाला, अच्छे स्पर्श वाला, इष्ट कान्त यावत्' मनोहर अहीन स्वर वाला यावत् मनोहर स्वर वाला आदेय वचन वाला होता है । उसके बाहरी और आभ्यन्तर परिवार वाले यानी नौकर चाकर तथा पुत्र स्त्री आदि परिवार के सभी लोग उसका आदर करते हैं और उसे अपना स्वामी समझते हैं । जब वह कुछ बोलता है तो सब लोग उसका आदर करते हुए कहते हैं कि हे आर्य ! और कहिये, और कहिये । इस प्रकार सब जगह वह सन्मानित होता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में मायावी पुरुष द्वारा माया करके उसकी आलोचना नहीं करने के आठ स्थान और आलोचना करने के आठ स्थानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। जो साधक कृत दोषों की आलोचना नहीं करता है वह आराधक नहीं होता है। कहा भी है - लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वावि दुच्चरिय। जे न कहिति गुरुणं न हु ते आराहया होति॥ - जो साधु लज्जा से, गौरव से या बहुश्रुत के मद से गुरु के सामने आलोचना नहीं करता वह आराधक नहीं विराधक बन जाता है। माया शल्य की प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि नहीं करने वाला इस लोक और परलोक में दुःखी होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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