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________________ स्थान ८ भट्टी, लुहार के बड़े बड़े भट्टे तपे हुए, जलते हुए जो अग्नि के समान हो गए हैं जो किंशुक अर्थात् पलाश के कुसुम (फूल) की तरह लाल हो गये हैं जो हजारों उल्काओं को छोड़ रहे हैं, जो हजारों ज्वालाएं और अंगारे छोड़ रहे हैं और जो अन्दर ही अन्दर जोर से सुलग रहे हैं। ऐसे भट्टों और अग्नि की तरह माया का सेवन करके मायावी पुरुष हमेशा पश्चात्ताप रूपी अग्नि से अन्दर ही अन्दर जलता रहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे पुरुष के लिए बातचीत करता हो तो भी मायावी पुरुष जानता है कि यह मेरे ही लिए कह रहा है, शायद इसने मेरे दोषों को जान लिया होगा इस प्रकार वह सदा शङ्का करता रहता है। मायावी पुरुष माया का सेवन करके उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना मर कर पहले कुछ शुभ करणी की हो तो भी व्यन्तर आदि छोटी जाति के देवों में उत्पन्न होता है किन्तु परिवारादि की बड़ी ऋद्धि वाले, शरीर और आभरण आदि की अधिक दीप्ति वाले, वैक्रियादि की अधिक लब्धि वाले, अधिक शक्ति सम्पन्न, अधिक सुख वाले महेश या सौधर्म आदि कल्पों में तथा एक सागर या उससे अधिक आयु वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता है। इस प्रकार वह महर्द्धिक यावत् लम्बी स्थिति वाला देव नहीं होता है। उसका दास दासी आदि बाहरी परिवार और स्त्री पुत्र आदि की तरह आभ्यन्तर परिवार भी उसका आदर नहीं करता है एवं उसको अपना स्वामी नहीं समझता है कोई भी उसको बैठने के लिए बहुमूल्य अच्छा आसन नहीं देता है। जब वह कुछ बोलने के लिए खड़ा होता है तो एक दम चार पांच देव खड़े होकर उसका अपमान करते हुए कहते हैं बस ! रहने दो, अधिक मत बोलो । Jain Education International जब वह मायावी जीव वहाँ की आयु, भव और स्थिति क्षय होने पर उस देवलोक से चव कर इस मनुष्य लोक में इन नीच कुलों में उत्पन्न होता है यथा अन्तकुल अर्थात् वरुडं छिंपक आदि । प्रान्तकुल • चाण्डाल आदि । तुच्छ यानी छोटे कुल जिनमें थोड़े आदमी हों अथवा ओछे हों जिनका जाति बिरादरी में कोई सन्मान न हो, दरिद्रकुल - नट आदि । भीख मांगने वाले कुल कृपणकुल इस प्रकार के हीनकुलों में पुरुष रूप से उत्पन्न होता है । इन कुलों में पुरुष रूप से उत्पन्न होकर भी वह कुरूप भद्दे रंग वाला, बुरी गन्ध वाला, बुरे रस वाला, कठोर स्पर्श वाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनोहर, हीन स्वर वाला, दीन स्वर वाला, अनिष्ट स्वर वाला, अकान्त स्वर वाला, अमनोज्ञ स्वर वाला, अमनोहर स्वर वाला और अनादेय वंचन वाला होता है । बाहरी और आभ्यन्तर परिवार यानी नौकर चाकर और पुत्र स्त्री आदि उसका सन्मान नहीं करते हैं, उसकी बात नहीं मानते हैं और उसे अपना स्वामी नहीं समझते हैं उसे बैठने के लिए बहुमूल्य - अच्छा आसन नहीं देते हैं । जब वह कुछ बोलता है तो चार पांच आदमी एक दम खड़े होकर उसका अपमान करते हुए कहते हैं कि बस ! रहने दो, अधिक मत बोलों । इस प्रकार वह मायावी पुरुष सब जगह अपमानित होता रहता 1 जो मायावी पुरुष माया का सेवन करके उसकी आलोयणा और प्रतिक्रमण आदि कर लेता है वह २१३ 100 - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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