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________________ २१२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 है। दुबारा नहीं करने का निश्चय नहीं करता है, दोष के लिए उचित प्रायश्चित्त नहीं लेता है। वे आठ कारण इस प्रकार हैं - १. वह यह सोचता है कि जब मैंने अपराध कर ही लिया है तो अब उस पर पश्चात्ताप क्या करना, २. अब भी मैं उसी अपराध को कर रहा हूँ उससे निवृत्त हुए बिना आलोयणा कैसे हो सकती है, ३. मैं उस अपराध को फिर करूंगा, इसलिए आलोयणा नहीं हो सकती है, ४. अपराध के लिए आलोचनादि करने से मेरी . अपकीर्ति होगी। ५. इससे मेरा अवर्णवाद यानी.. अपयश.होगा, ६. मेरा अपनय होगा अर्थात् पूजा सत्कार आदि मिट जायेंगे, ७. मेरी कीर्ति घट जायगी, ८. मेरा यश घट जायगा। इन आठ कारणों से मायावी पुरुष अपने अपराध की आलोचना नहीं करता है। ____ आठ कारणों से मायावी पुरुष माया करके उस की आलोचना करता है यावत् उसके लिए उचित प्रायिश्चत्त लेता है वे आठ कारण इस प्रकार हैं - १. मायावी पुरुष की इस लोक में निन्दा एवं अपमान होता है यह समझ कर निन्दा एवं अपमान से बचने के लिए मायावी पुरुष आलोयणा करता है । २. मायावी का उपपात अर्थात् देवलोक में जन्म भी गर्हित होता है क्योंकि वह तुच्छ जाति के देवों में उत्पन्न होता है और वहां सभी उसका अपमान करते हैं । ३. देवलोक से चवने के बाद मनुष्य जन्म भी उसका गर्हित होता है । वह तुच्छ, नीच तथा निन्दित कुल में उत्पन्न होता है, वहाँ भी उसका कोई आदर नहीं करता है । ४. जो व्यक्ति एक बार भी माया करके उसकी आलोयणा नहीं करता यावत् उसके लिए उचित प्रायश्चित्त नहीं लेता है वह आराधक नहीं, विराधक हो जाता है। ५. जो व्यक्ति एक बार भी सेवन की हुई माया की आलोयणा कर लेता है यावत् उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त ले लेता है वह आराधक होता है। ६. जो मायावी बहुत बार माया करके भी आलोयणा नहीं करता है यावत् उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त नहीं लेता है वह आराधक नहीं होता है । ७. जो व्यक्ति बहुत बार माया करके भी उसकी आलोयणा कर लेता है यावत् उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त ले लेता है वह आराधक होता है । ८. आचार्य या उपाध्याय विशेष ज्ञान से मेरे दोषों को जान लेंगे और वे मुझे मायावी यानी दोषी समझेंगे इस डर से वह अपने दोष की आलोयणा आदि कर लेता है। ___ जो मायावी पुरुष माया करके उसकी आलोयणा आदि नहीं करता है. वह मन ही मन पश्चात्ताप रूपी अग्नि से जलता रहता है । जैसे लोहे की, ताम्बे, की रांगे की, शीशे की, चांदी की और सोने की भट्टी की आग अथवा तिलों की आग, तुसों की आग, जौ की आग, नल अर्थात् सरों की आग, पत्तों की आग * सुण्डिका भण्डिका और गोलिया के चूल्हों की आग, कुम्हार के आवे-पजावे की आग कवेलू-नलिया पकाने के भट्टे की आग, ईंटें पकाने के भट्टे की आग गुड़ या चीनी आदि बनाने की .किसी खास बात के लिए क्षेत्र विशेष में होने वाली बदनामी को अपकीर्ति कहते हैं । .चारों तरफ फैली हुई बदनामी को अपयश कहते हैं । * सुण्डिका, भण्डिका और गोलिया ये तीनों शब्द किसी देश विशेष में प्रचलित हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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