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________________ २०२ ०००००००००००० प्रदेश बराबर हैं। पाँचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में विपरीत क्रम से आत्मप्रदेशों का संकोच करता है। इस प्रकार आठवें समय में सब आत्मप्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं। प्रवचन निह्नव समणस्स भगवओ महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयण णिण्हगा पण्णत्ता तंजहा बहुरया, जीव पएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया । एएसि णं सत्तहं पवयण णिण्हगाणं सत्त धम्मायरिया हुत्था तंजहा - जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, गोट्ठामाहिल्ले । एएसि णं सत्तहं पवयणणिण्हगाणं सत्त उप्पड़ णगरा होत्था तंजहा - साथी उसभपुरं, सेयविया मिहिलमुल्लगातीरं । पुरि मंतरंजि दसपुर, णिण्हग उप्पड़ णगराई ॥ १॥ ८१ ॥ कठिन शब्दार्थ - तित्थंसि तीर्थ में, पवयण प्रवचन, णिण्हगा निह्नव, बहुरया बहुरत, जीवपएसिया - जीव प्रादेशिक, तीसगुत्ते तिष्यगुप्त, अवत्तिया अव्यक्त दृष्टि, सामुच्छेइयासामुच्छेदिक, तेरासिया - त्रैराशिक, छलुए - षडुलूक, गोट्ठामाहिल्ले - गोष्ठामाहिल्ल । भावार्थ - जो व्यक्ति किसी महापुरुष के सिद्धांत को मानता हुआ भी किसी एक बात में विरोध करता है और फिर स्वयं एक अलग मत निकाल देता है उसे निह्नव कहते हैं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तीर्थ में सात प्रवचन निह्नव कहे गये हैं यथा - १. बहुरत- कोई क्रिया एक क्षण में सम्भव नहीं है । क्रिया के लिए बहुत समयों को आवश्यक मानने वाला होने से इस मत का नाम बहुरत है । इस मत का धर्माचार्य यानी प्रवर्त्तक जमाली था । वह श्रावस्ती नगरी में हुआ था । २. जीवप्रादेशिक - एक प्रदेश भी जीव नहीं है । इसी तरह संख्यात असंख्यात प्रदेश भी जीव नहीं है । इसके अतिरिक्त सभी प्रदेश अजीव । अन्तिम प्रदेश के होने पर ही जीवत्व है । उसके बिना नहीं । इसलिए अन्तिम प्रदेश ही जीव है । इस मत का धर्माचार्य - प्रवर्त्तक तिष्यगुप्त था । वह ऋषभपुर नगर में हुआ था । ३. अव्यक्त दृष्टि - किसी भी वस्तु का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता है । इसलिए इस मत के अनुयायी सब जगह सन्देह करते थे । इस मत का धर्माचार्य - प्रवर्त्तक आषाढाचार्य थे । वे श्वेताम्बिका नगरी में हुए थे । ४. सामुच्छेदिक दृष्टि - सब पदार्थों को क्षणक्षयी मानने वाला मत । इस का धर्माचार्य - प्रवर्त्तक अश्वमित्र मिथिला नगरी में हुआ था । ५. द्वैक्रिय - एक समय में दो क्रियाएं मानने वाला मत । इसका धर्माचार्य प्रवर्त्तक आर्य गङ्ग उल्लुका नाम की नदी के किनारे बसे हुए उल्लुकातीर नामक नगर में हुआ था । ६ त्रैराशिक जीव राशि, अजीव राशि और नोजीव नोअजीवराशि इन तीन राशि को मानने वाला मत । इसका धर्माचार्य - प्रवर्त्तक षडुलूक रोहगुप्त Jain Education International - श्री स्थानांग सूत्र 0000 - - - - For Personal & Private Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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