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________________ स्थान ७ अपने शरीर के अंगुल के असंख्यात भाग परिमाण और अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्येय योजन क्षेत्र को व्याप्त करता है और प्रभूत आयु कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। ४. वैक्रिय समुद्घात - वैक्रिय के आरम्भ करने पर जो समुद्घात होता है उसे वैक्रिय समुद्घात कहते हैं और वह वैक्रिय शरीर नाम कर्म के आश्रित होता है अर्थात् वैक्रिय लब्धि वाला जीव वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। ५. तेजस समुद्घात - यह तेजो लेश्या निकालते समय में रहने वाले तैजस शरीर नाम कर्म के आश्रित है अर्थात् तेजो लेश्या की स्वाभाविक लब्धि वाला कोई साधु आदि सात आठ कदम पीछे हटकर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण जीव प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है और प्रभूत तैजस शरीर नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। . ___६. आहारक समुद्घात - आहारक शरीर का आरम्भ करने पर होने वाला समुद्घात आहारक : समुद्घात कहलाता है। वह आहारक नाम कर्म को विषय करता है अर्थात् आहारक शरीर की लब्धि : वाला आहारक शरीर की इच्छा करता हुआ विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण अपने प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर यथा स्थूल पूर्वबद्ध आहारक कर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है। ७. केवली समुद्घात - अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली के समुद्घात को केवली समुद्घात कहते हैं। वह वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। ___अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाला कोई केवली (केवलज्ञानी) कर्मों को सम करने के लिए ! अर्थात् वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति को आयु कर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए समुद्घात करता है। केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। प्रथम समय में केवली आत्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करता है। वह मोटाई में स्वशरीर परिमाण और लम्बाई में ऊपर और नीचे से लोकान्त पर्यन्त विस्तृत होता है। दूसरे समय में केवली उसी दण्ड को पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में फैलाता "है। फिर उस दण्ड का लोक पर्यन्त फैला हुआ कपाट बनाता है। तीसरे समय में दक्षिण और उत्तर अथवा पूर्व और पश्चिम दिशा में लोकान्त पर्यन्त आत्मप्रदेशों को फैला कर उसी कपाट को मथानी रूप बना देता है। ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग आत्मप्रदेशों से व्याप्त हो जाता है, किन्तु मथानी की तरह अन्तराल प्रदेश खाली रहते हैं। चौथे समय में मथानी के अन्तरालों को पूर्ण करता हुआ समस्त लोकाकाश को आत्मप्रदेशों से व्याप्त कर देता है, क्योंकि लोकाकाश और एक जीव के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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