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________________ २०० श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 मारणंतियसमुग्याए, वेउव्वियसमुग्याए, तेयसमुग्याए, आहारगसमुग्याए, केवलिसमुग्याए । मणुस्साणं सत्त समुग्धाया पण्णत्ता एवं चेव॥८॥ भावार्थ - समुद्घात - कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म प्रदेशों को उदीरणां के द्वारा उदय में लाकर उनकी प्रबलता पूर्वक निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है । वे सात कहे गये हैं यथा - १. वेदना समुद्घात - असाता वेदनीय कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । २. कषाय समुद्घात - कषाय मोहनीय कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ३. मारणान्तिक समुद्घात - मरण के समय में होने वाला समुद्घात । ४. वैक्रिय समुद्घात - वैक्रिय के आरम्भ करने पर होने वाला समुद्घात । ५. तैजस समुद्घात - तेजो लेश्या लब्धि वाले पुरुष के द्वारा किया जाने वाला समुद्घात । ६. आहारक समुद्घात - आहारक शरीर का आरम्भ करने पर होने वाला समुद्घात । ७. केवलि समुद्घात - अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष जाने वाले केवली भगवान् के द्वारा किया जाने वाला समुद्घात केवलि समुद्घात कहलाता है। विवेचन - समुद्घात - वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर उनकी प्रबलता पूर्वक निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। इसके सात भेद हैं - १. वेदना समुद्घात - वेदना के कारण से होने वाले समुद्घात को वेदना समुद्घात कहते हैं। यह असाता वेदनीय कर्मों के आश्रित होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव अनन्तानन्त कर्म स्कन्धों से व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उन से मुख उदर आदि छिद्रों और कान तथा स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होद र अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असाता वेदनीय कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है। ___२. कषाय समुद्घात - क्रोधादि के कारण से होने वाले समुद्घात को कषाय समुद्घात कहते हैं। यह कषाय मोहनीय के आश्रित है अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से व्याकुल जीव अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख और पेट आदि के छिद्रों और कान एवं स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है। ३. मारणान्तिक समुद्घात - मरण काल में होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। यह अन्तर्मुहूर्त शेष आयु कर्म के आश्रित है अर्थात् कोई जीव आयु कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उनसे मुंख और उदरादि के छिद्रों और कान एवं स्कन्धादि के अन्तरालों को पूर्ण करके विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में कम से कम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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