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________________ स्थान ७ . १७९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - ठाणाइए - स्थानातिग, उक्कुडुयासणिए - उत्कुटुकासनिक, पडिमठाई - प्रतिमा स्थायी, वीरासणिए - वीरासनिक, णेसजिए - नैषधिक, दंडाइए - दण्डायतिक, लगंडसाई - लगण्डशायी। भावार्थ - कायाक्लेश - शास्त्रसम्मत रीति के अनुसार आसन विशेष से बैठना कायाक्लेश नाम का तप है इसके सात भेद कहे गये हैं यथा - १. स्थानातिग - एक स्थान पर निश्चल बैठ कर कायोत्सर्ग करना । २. उत्कुटुकासनिक - उत्कुटुक आसन से बैठना । ३. प्रतिमास्थायी - एक मासिकी, द्विमासिकी आदि पडिमा (प्रतिज्ञा विशेष) अङ्गीकार करके कायोत्सर्ग करना । ४. वीरासनिककुर्सी पर बैठ कर दोनों पैरों को नीचे लटका कर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो अवस्था बनती है उस आसन से बैठ कर कायोत्सर्ग करना । ५. नैषदियक - दोनों कूलों के बल भूमि पर बैठना । दण्डायतिक - डण्डे की तरह लम्बा लेंट कर कायोत्सर्ग करना। लगण्डशायी - टेडी लकड़ी की तरह लेट कर कायोत्सर्ग करना । इस आसन में दोनों एडियाँ और सिर ही भूमि को छूने चाहिए बाकी सारा शरीर धनुषाकार भूमि से उठा हुआ रहना चाहिए अथवा सिर्फ पीट ही भूमि पर लगी रहनी चाहिए शेष सारा शरीर भूमि से उठा हुआ रहना चाहिए । - विवेचन - बाह्य तप के भेदों में 'कायक्लेश' पांचवां तप है। प्रस्तुत सूत्र में कायक्लेश तप के अंतर्गत सात प्रकार के आसनों का वर्णन किया गया है। मानसिक एकाग्रता के लिये काया की स्थिरता आवश्यक है अतः इन आसनों की उपयोगिता है। - जंबूद्वीप में क्षेत्र पर्वत नदी आदि ... जंबूहीवे दीवे सत्त वासा पण्णत्ता तंजहा - भरहे, एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे । जंबूद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता तंजहा - चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, णिसहे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे । जंबूहीवे दीवे सत्त महाणईओ पुरत्थाभिभुहाओ लवणसमुहं समुप्पेंति तंजहा - गंगा, रोहिया, हरिसलीला, सीया, णरकंता, सुवण्णकूला, रत्ता । जंबूहीवे दीवे सत्त महाणईओ पच्चत्वाभिमुहाओ लवणसमुहं समुप्पंति तंजहा - सिंधु, रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारीकंता, रुप्पकूला, रत्तवई । धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्त वासा पण्णत्ता तंजहा - भरहे जाव महाविदेहे । धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्त वासहरपव्यया पण्णत्ता तंजहा - चुल्लहिमवंते जाव मंदरे ।धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्त महाणईओ पुरत्थाभिमुहाओ कालोयसमुहं समुप्पेंति तंजहा - गंगा जाव रत्ता । धायइसंड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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