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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000
वृत्त अर्थात् छन्द तीन तरह का होता है । यथा - सम यानी जिस छन्द के चारों पाद के अक्षरों की संख्या समान हो उसे सम कहते हैं । अर्द्धसम - जिस छन्द में पहला पाद और तीसरा पाद तथा दूसरा पाद और चौथा पाद परस्पर समान संख्या वाले हों उसे अर्द्धसम कहते हैं । और सर्वत्र विषम यानी जिस छन्द में चारों पादों के अक्षरों की संख्या एक दूसरे से न मिलती हो उसे विषम कहते हैं । छन्द के ये तीन भेद होते हैं इनके सिवाय चौथा कोई भेद नहीं होता है ।। २७॥
. संस्कृत और प्राकृत ये संगीत की दो भाषाएं कही गई हैं । संगीत के अन्त में स्वर मण्डल में ऋषिभाषा उत्तम कही गई है ।। २८॥
संगीत कला में स्त्री का स्वर प्रशस्त माना गया है । कौनसी स्त्री कैसी गाती है ? यह प्रश्न करके आगे उत्तर दिया जाता है । यथा - कैसी स्त्री मधुर गाती है ? कैसी स्त्री कठोर और रूक्ष गाती है ? कैसी स्त्री चतुरतापूर्वक गाती है ? कैसी स्त्री विलम्ब से गाती है और कैसी स्त्री जल्दी जल्दी गाती है? ॥ २९॥ इन प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है -
- श्यामा स्त्री मधुर गाती है । काली स्त्री कठोर और रूक्ष गाती है । गौरं वर्ण वाली स्त्री चतुरतापूर्वक गाती है । काणी स्त्री ठहर ठहर कर, अन्धी स्त्री जल्दी जल्दी और पीले रंग की स्त्री विस्वर यानी खराब स्वर से गाती है ।। ३०॥
तन्त्रीसम यानी वीणा आदि के शब्द के साथ गाना। तालसम - ताल के अनुसार हाथ पैर आदि हिलाना, पादसम - राग के अनुकूल पादविन्यास, वीणा आदि की लय के अनुसार गाना। ग्रहसम-बांसुरी या सितार आदि के स्वर के साथ गाना। निःश्वसित उच्छसित सम - सांस लेने और बाहर निकालने के ठीक क्रम के अनुसार माना और सञ्चारसम - वांसुरी या सितार आदि के सञ्चालन के साथ साथ गाना, ये सात स्वर हैं । संगीत का प्रत्येक स्वर अक्षरादि सातों से मिल कर सात प्रकार का हो जाता है ॥३१॥ * सात स्वर, तीन ग्राम, इक्कीस मूर्च्छनाएं और उनपचास तान होते हैं अर्थात् प्रत्येक स्वर सात तानों के द्वारा गाया जाता है । इसलिए सातों स्वरों के ४९ भेद हो जाते हैं । यह स्वर मण्डल समाप्त हुआ ।। ३२॥
विवेचन - उपरोक्त सूत्र में सात स्वरों का वर्णन किया गया है। यद्यपि सचेतन और अचेतन पदार्थों में होने वाले स्वर भेद के कारण स्वरों की संख्या अगणित हो सकती है तथापि स्वरों के प्रकार मेद के कारण उनकी संख्या सात ही है अर्थात् ध्वनि के मुख्य सात भेद हैं - षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, रैवत या धैवत और निषाद। इनका शब्दार्थ आदि भावार्थ में स्पष्ट कर दिया गया है।
काया क्लेश के भेद सत्त विहे कायकिलेसे पण्णत्ते तंजहा - ठाणाइए, उक्कुडुयासणिए, पडिमठाई, वीरासणिए, णेसज्जिए, दंडाइए, लगंडसाई॥६८॥
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