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________________ स्थान ७ १७५ विस्सरं पुण पिंगला। तंतिसमं तालसमं पादसमं लयसमं गहसमं च । णिस्ससि उस्ससियसमं, संचार समा सरा सत्त ॥३१॥ , सत्त सरा य तओ गामा, मुच्छणा इक्कवीसई । ताणा एगूण पण्णासा, समत्तं सरमंडलं ॥३२॥६७॥ कठिन शब्दार्थ - सरा- स्वर, सर ठाणा - स्वर स्थान, अग्गजिब्भाए - जिह्वा के अग्रभाग से, कंठुग्गएण- कंठ के अग्र भाग से, दंतोटेण - दांत और ओठ से, जीवणिस्सिया - जीव निश्रित, मुइंगोमृदङ्ग, आडंबरो- आडम्बर-नारा, सरलक्खणा - स्वर लक्षण, वल्लभो - वल्लभ, एसज - ऐश्वर्य, साउणिया - चिडीमार, वग्गुरिया - वागुरिक-शिकारी, गोधायगा - गोघातक, मूच्छणाओ - मूर्छनाएं, आसोकंता - अश्वकान्ता, णाभीओ - नाभि से, आइ - आदि, आगारा - आकार, भइणीओभणितियाँ, सुसिक्खिओ- सुशिक्षित, रंग मज्झम्मि - रंगशाला में, भीयं - भीत, दुयं - द्रुत, अणुणासंअनुनास, अविघुटुं- अविघुष्ट, उरकंठसिरपसत्यं - उर (उरस्), कंठ शिर प्रशस्त , समताल पडुक्खेवंसमताल प्रत्युत्क्षेप, सत्तसरसीहरं - सप्त स्वर सीभर, सोवयारं - सोपचार, सक्कया - संस्कृत भाषा, पांगया- प्राकृत भाषा । भावार्थ - सात स्वर कहे गये हैं यथा - षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत या रैवत . और निषाद ये सात स्वर कहे गये हैं ।।१॥ - इन सात स्वरों के सात स्वर स्थान कहे गये हैं यथा - षड्ज स्वर जिला के अग्रभाग से पैदा होता है । ऋषभ स्वर छाती से, गान्धार कण्ठ से, मध्यम स्वर जिला के मध्यभाग से, पञ्चम स्वर नाक से, धैवत स्वर दांत और ओठ से और निषाद स्वर मुर्दा यानी जिह्वा को मस्तक की तरफ लगा कर बोला जाता है । स्वरों के ये सात स्थान कहे गये हैं ।।२-३॥ ___ सात स्वर जीवनिश्रित कहे गये हैं यानी जानवरों की बोली से इन सात स्वरों की पहिचान कराई जाती है यथा - मोर षड्ज स्वर में बोलता है । कुक्कुट - कूकड़ा ऋषभ स्वर में बोलता है । हंस गान्धार स्वर में बोलता है । गाय और भेडें मध्यम स्वर में बोलती है । फूलों की उत्पत्ति के समय में यानी वसंत ऋतु में कोकिल पञ्चम में स्वर बोलती है । सारस और क्रौञ्च पक्षी छठा यानी धैवत स्वर में बोलते हैं और हाथी सातवां निषाद स्वर में बोलते हैं ।।४-५॥ सात स्वर अजीवनिश्रित कहे गये हैं अर्थात् अचेतन पदार्थों से भी ये सात स्वर निकलते हैं यथामृदङ्ग षड्ज स्वर बोलता है अर्थात् मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है । गोमुक्खी बाजे से ऋषभ स्वर निकलता है । शंख से गान्धार, झल्लरी बाजे से मध्यम, चार चरणों से अवस्थित रहने वाले गोधिका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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