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________________ स्थान ७ १५७ जाना चाहता हूँ । ६. कुछ धर्मों का ज्ञान दूसरे को देना चाहता हूँ । इस कारण दूसरे गण में जाना चाहता हूँ। ७. हे भगवन् ! गण से बाहर निकल कर मैं जिनकल्प आदि रूप एकलविहार पडिमा अङ्गीकार करना चाहता हूँ । इसलिए गण से निकलना सातवां गणापक्रमण है । - विवेचन - छठे स्थानक के अंतिम सूत्र में पुद्गलों की पर्याय का कथन किया गया है तो सातवें स्थान के इस प्रथम सूत्र में पुद्गल विषयक क्षयोपशम से जो अनुष्ठान विशेष जीव को प्राप्त होता है उसके सात प्रकार बताये गये हैं। इस प्रकार दोनों सूत्रों का परस्पर संबंध है। गण यानी गच्छ से अपक्रमण यानी निकलना अर्थात् एक गण को छोड़ कर दूसरे गण में जाना गणापक्रमण कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में गणापक्रमण के सात कारण बताए हैं। आचार्य, उपाध्याय अथवा रत्नाधिक साधु की आज्ञा ले कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि की अभिवृद्धि के लिये एक गण को छोड़ कर दूसरे गण में जाना दोष नहीं है। विभंगज्ञान के भेद ____ सत्तविहे विभंगमाणे पण्णत्ते तंजहा - एग दिसिलोयाभिगमे, पंचदिसिलोयाभिगमे,किरियावरणे जीवे, मुदग्गे जीवे, अमुदग्गे जीवे, रूवी जीवे, सव्व मिणं जीवा । तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे - जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंग णाणे समुप्पजइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उड्डे वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णं एवं . भवइ - अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे एगदिसिं लोयाभिगमे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु पंचदिसिं लोयाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु पढमे विभंगणाणे ।अहावरे दोच्चे विभंगणाणे जया णं तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ - पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उई जाव सोहम्मे कप्पे तस्स णं एवं भवइ - अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे पंचदिसिं लोयाभिगमे, संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु -एगदिसिं लोयाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंस, दोच्चे विभंगणाणे ।अहावरे तच्चे विभंगणाणे, जया णंतहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ - पाणे अइवाएमाणे, मुसं वएमाणे, अदिण्णमाइयमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, परिग्गहं परिगिण्हमाणे, राइभोयणं भुंजमाणे वा, पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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