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________________ सातवाँ स्थान छठे अध्ययन में छह संख्या युक्त पदार्थों की प्ररूपणा की गयी है। अब इस सातवें अध्ययन (स्थान) में सूत्रकार उन पदार्थों की विवेचना करेंगे जिनकी संख्या सात है। सातवें स्थानक में एक ही उद्देशक है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - गणापक्रमण सत्तविहे गणावक्कमणे पण्णत्ते तंजहा - सव्वधम्मा रोएमि, एगइया रोएमि एगइया णो रोएमि, सव्वधम्मा वितिगिच्छामि, एगइया वितिगिच्छामि एगइया णो वितिगिच्छामि, सव्वधम्मा जुहुणामि एगइया जुहुणामि एगइया णो जुहणामि, इच्छामि णं भंते ! एगल्लविहार पडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥ . - कठिन शब्दार्थ - गणावक्कमणे - गणापक्रमण, वितिगिच्छामि - सन्देह करता हूँ, जुहुणामिदेना चाहता हूँ, एगल्लविहार - एकल विहार । . . भावार्थ - गणापक्रमण - कारण विशेष से एक गण या संघ को छोड़ कर दूसरे गण में चला जाना या एकल विहार करना गणापक्रमण कहलाता है । आचार्य, उपाध्याय, स्थविर या अपने से बड़े साधु की आज्ञा लेकर ही दूसरे गण में जाना कल्पता है । इसी प्रकार एक गण को छोड़ कर दूसरे गण में जाने की आज्ञा मांगने के लिए तीर्थङ्करों ने सात कारण बताये हैं । यथा - १. निर्जरा के हेतु मैं खन्ति (क्षमा), मुत्ति (निर्लोभता) आदि सभी धर्मों को पसन्द करता हूँ। सूत्र और अर्थ रूप श्रुत के नये भेद सीखना चाहता हूँ । भूले हुए को याद करना चाहता हूँ और पढे हुए की आवृत्ति करना चाहता हूँ । इन सब की व्यवस्था इस गण में नहीं है । इसलिए हे भगवन् ! मैं दूसरे गण में जाना चाहता हूँ इस प्रकार आज्ञा मांग कर दूसरे गण में जाना पहला गणापक्रमण है । अथवा दूसरे पाठ के अनुसार 'मैं सब धर्मों को जानता हूँ' इस प्रकार घमण्ड से गण छोड़ कर चला जाना पहला गणापक्रमण है । २. मैं श्रुत चारित्र रूप धर्म के कुछ भेदों का पालन करना चाहता हूँ और कुछ का नहीं । जिनका पालन करना चाहता हूँ उनके लिए इस गण में व्यवस्था नहीं है । इसलिए मैं दूसरे गण में जाना चाहता हूँ । इस कारण एक गण को छोड़ कर दूसरे में चला जाना दूसरा गणापक्रमण है । ३. मुझे सभी धर्मों में सन्देह है । अपना सन्देह दूर करने के लिए मैं दूसरे गण में जाना चाहता हूँ । यह तीसरा गणापक्रमण है । ४. मुझे कुछ धर्मों में सन्देह हैं और कुछ में नहीं। इसलिए दूसरे गण में जाना चाहता हूँ। यह चौथा गणापक्रमण है। : ५. मैं सब धर्मों का ज्ञान दूसरे को देना चाहता हूँ । अपने गण में कोई पात्र न होने से मैं दूसरे गण में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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