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________________ १४८ श्री स्थानांग सूत्र साधुओं में इत्वर (स्वल्प) कालीन और बीच के २२ तीर्थंकरों के शासन में और महाविदेह क्षेत्र में यावज्जीवन होता है । और सभी तीर्थङ्करों के यावजीवन होता है । ___२. छेदोपस्थापनीय कल्प स्थिति - जिस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेद कर फिर महाव्रतों का आरोपण हो उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं और इसकी मर्यादा को छेदोपस्थापनीय कल्प स्थिति कहते हैं । यह चारित्र प्रथम और चरम तीर्थंकरों के साधुओं में ही होता है । सामायिक कल्प स्थिति में बताये हुए अवस्थित कल्प के चार और अनवस्थित कल्प के छह, कुल दस बोलों का पालन करना छेदोपस्थापनीय चारित्र की मर्यादा है। ३. निर्विशमान कल्प स्थिति - परिहार . विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार करने वाले पारिहारिक साधुओं की आचार मर्यादा को निर्विशमानकल्प स्थिति कहते हैं । पारिहारिक साधु ग्रीष्मकाल में जघन्य उपवास, मध्यम बेला और उत्कृष्ट तेला तप करते हैं । शीतकाल में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला तथा वर्षाकाल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचोला तप करते हैं । पारणे के दिन आयंबिल करते हैं । संसृष्ट और असंसृष्ट पिण्डैषणाओं को छोड़ कर शेष पांच में से इच्छानुसार आहार, पानी लेते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह मास तक तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक एवं कल्पस्थित (गुरु रूप) ये पांच साधु सदा आयम्बिल ही करते हैं। इस प्रकार छह मास तक तप कर लेने के बाद वे आनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्य करने वाले हो जाते हैं और वैयावृत्य करने वाले (आनुपारिहारिक) साधु पारिहारिक बन जाते हैं। अर्थात् तप करने लग जाते हैं यह क्रम भी छह मास तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक साधु गुरु पद पर स्थापित किया जाता है। शेष सात साधु वैयावृत्य करते हैं। पहले गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है। यह भी छह मास तक तप करता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है। परिहार तप पूर्ण होने पर वे नव साधु या तो इसी कल्प को पुनः प्रारम्भ करते हैं • या जिनकल्प धारण कर लेते हैं अथवा वापिस गच्छ में आ जाते हैं। यह चारित्र छेदोपस्थापनीय चारित्र वालों के ही होता हैं दूसरों के नहीं। ४. निर्विष्ट कल्प स्थिति - पारिहारिक तप पूरा करने के बाद जो वैयावृत्य करने लगते हैं वे निर्विष्टकायिक कहलाते हैं । इन्हीं को अनुपारिहारिक भी कहा जाता है । इनकी मर्यादा निर्विष्ट कायिक कल्प स्थिति कहलाती है। ५. जिनकल्पस्थिति - गुरु महाराज की आज्ञा लेकर उत्कृष्ट चारित्र पालन करने की इच्छा से चारित्रवान् और उत्कृष्ट सम्यक्त्वधारी साधुओं का गण परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार करता है । वे जघन्य नव पूर्वधारी और उत्कृष्ट किञ्चिन्नयून दस पूर्वधारी होते हैं । वे व्यवहार कल्प और प्रायश्चित्तों में कुशल होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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