________________
स्थान ६
१४९
गच्छ से निकले हुए साधु जिनकल्पी कहे जाते हैं । इनके आचार को जिनकल्प स्थिति कहते हैं । जघन्य नववें पूर्व की तृतीय आचार वस्तु और उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्वधारी साधु जिनकल्प अङ्गीकार करते हैं । वे वप्रऋषभ नाराच संहनन के धारक होते हैं । अकेले रहते हैं, उपसर्ग और रोगादि की वेदना को औषधादि का उपचार किये बिना सहते हैं । उपाधि से रहित स्थान में रहते हैं । पिछली पांच में से किसी एक पिण्डैषणा का अभिग्रह करके भिक्षा लेते हैं।
६. स्थविर कल्पस्थिति - गच्छ में रहने वाले साधुओं के आचार को स्थविर कल्प स्थिति कहते हैं । सतरह प्रकार के संयम का पालन करना, तप और प्रवचन को दीपाना, शिष्यों में ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना, वृद्धावस्था में जंघाबल क्षीण हो जाने पर वसति, आहार और उपधि के दोषों का परिहार करते हुए एक ही स्थान में रहना आदि स्थविर का आचार है ।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चौविहार छट्ठ भत्त (बेले) का तप करके मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुए थे। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को चौविहार छ8 भत्त (बेले) के तप से अनन्त, प्रधान केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन हुआ था। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चौविहार छट्ठ भत्त (बेले) के तप से सब दुःखों का अन्त करके सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए थे । ... तीसरे सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र नामक देवलोकों में विमान छह सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं । तीसरे सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र नामक देवलोकों में देवों की भवधारणीय शरीर की अवगाहना उत्कृष्ट छह हाथ की कही गई है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में कल्प यानी संयम के छह प्रस्तार-प्रायश्चित, कल्प पलिमंथु यानी साधु के आचार का मन्थन-घात करने वाले के छह भेद और छह प्रकार की कल्पस्थिति-साधु के शास्त्रोक्त आचार का वर्णन किया गया है।
. .... भोजन परिणाम, विष परिणाम, प्रश्न छविहे भोयण परिणामे पण्णत्ते तंजहा - मणुण्णे, रसिए, पीणणिजे, बिहणिज्जे, दीवणिजे, दप्पणिजे।छविहे विस परिणामे पण्णत्ते तंजहा - डक्के, भुत्ते, णिव्वइए, मंसाणुसारी, सोणियाणुसारी, अट्ठिमिंजाणुसारी । छव्विहे पट्टे पण्णत्ते तंजहा - संसयपट्टे, बुग्गहपढे, अणुजोगी, अणुलोमे, तहणाणे अतहणाणे । चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिए उववाएणं । एगमेगे णं इंदट्ठाणे उक्कोसेणं छम्मासा विरहिए उववाएणं । अहेसत्तमा णं पुढवी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिया उववाएणं । सिद्धि गई णं उक्कोसेणं छम्मासा विरहिया उववाएणं॥५८॥
कठिन शब्दार्थ - भोयण - भोजन, परिणामे - परिणाम, रसिए - रस युक्त, पीणणिज्जे -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org