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स्थान ६
१४७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 न बोलने पर भी दूसरे व्यक्ति पर झूठ बोलने का कलंक लगाना । अदत्तादान की बात कहना यानी चोरी न करने पर भी दूसरे पर चोरी का दोष मढना । अविरति की बात कहना यानी ब्रह्मचर्य का भंग न करने पर भी दूसरे पर ब्रह्मचर्य भंग का दोष लगाना । अपुरुष की बात कहना यानी किसी साधु के लिए झूठ मूठ यह कह देना कि यह पुरुषत्व हीन अर्थात् हीजड़ा है या पुरुष नहीं है । दासपने की बात कहना यानी किसी साधु के लिए यह कहना कि 'यह पहले दास था और इसको अमुक व्यक्ति ने मोल लिया था ।' संयम के इन छह प्रायश्चित्तों का कथन करने वाला व्यक्ति दूसरों पर लगाये गये उपरोक्त दोषों को प्रमाणित (साबूती) न कर सके तो वह स्वयं उस स्थान को प्राप्त हो जाता है । यानी दूसरे पर झूठा कलंक वाले व्यक्ति को उतना ही प्रायश्चित्त आता है जितना उस दोष के वास्तविक सेवन करने वाले को आता है । कल्प के यानी साधु के आचार का मन्थन अर्थात् घात करने वाले कल्पपलिमंथु कहलाते हैं । वे छह हैं। यथा - १. कौकुचिक-स्थान, शरीर और भाषा की अपेक्षा कुत्सित चेष्टा करने वाला कौकुचिक साधु संयम का घातक होता है । २. मौखरिक - बहुत बोलने वाला एवं अप्रिय और कठोर वचन बोलने वाला साधु सत्य वचन का घातक होता है । ३. चक्षुलोलुप - मार्ग में चलते हुए इधर उधर देखने वाला चञ्चल साधु ईर्या समिति का घातक होता है । ४. तिंतिणक - आहार, उपधि या शय्या न मिलने पर खेदवश बिना विचारे जैसे तैसे बोल देने वाला तनुक मिजाज साधु एषणा समिति का घातक होता है क्योंकि ऐसे स्वभाव वाला साधु दुःखी होकर अनेषणीय आहार आदि भी ले लेता है । ५. इच्छा लोभिक - अतिशय लोभ और इच्छा होने से अधिक उपधि को ग्रहण करने वाला साधु निर्लोभता निष्परिग्रहता रूप मुक्तिमार्ग का घातक होता है । ६. भिज्जा यानी लोभ के वश चक्रवर्ती, इन्द्र आदि की ऋद्धि का नियाणा करने वाला साधु सम्यग् ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का घातक होता है । सर्वत्र यानी सब जगह यहाँ तक कि चरमशरीरी और तीर्थंकर पद के लिए भी नियाणा न करना श्रेष्ठ है, इस प्रकार भगवान् ने फरमाया है । कल्पस्थिति यानी साधु के आचार की मर्यादा छह प्रकार की कही गई है। यथा -
१. सामायिक कल्पस्थिति - सर्व सावदय विरति रूप सामायिक चारित्र वाले संयमी साधुओं की मर्यादा सामायिक कल्प स्थिति है । सामायिक कल्प प्रथम और चरम तीर्थंकरों के
१. शय्यातर पिण्ड का त्याग, २. चार महाव्रतों का पालन, ३. कृतिकर्म ४. पुरुष ज्येष्ठता ये चार सामायिक चारित्र वालों में नियमित रूप से (नियमा से) होते हैं । इन्हें अवस्थित कल्प कहते हैं।
१. सफेद और प्रमाणोपेत वस्त्र की अपेक्षा अचेलता, २. औदेशिक आदि दोषों का त्याग, ३. राजपिण्ड का त्याग, ४. प्रतिक्रमण, ५. मासकल्प, ६. पर्युषण कल्प, ये छह सामायिक चारित्र के अनवस्थित कल्प हैं अर्थात् ये अनियमित रूप से (भजना से) पाले जाते हैं।
प्रथम और चरम तीर्थकर के शासन में पांच महाव्रतों का अवस्थित कल्प होता है ।
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