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स्थान ६
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१४५ अवधिज्ञान शुभ अध्यवसाय होने पर अपनी पूर्वावस्था में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है । ४. हीयमान - जैसे अग्नि की ज्वाला ईंधन न पाने से क्रमशः घटती जाती है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान संक्लेशवश परिणामों की विशुद्धि के घटने से उत्पत्ति समय की अपेक्षा क्रमशः घटता जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है । ५. प्रतिपाती - जो अवधि ज्ञान उत्कृष्ट सर्वलोक परिमाण विषय करके चला जाता है वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है । ६. अप्रतिपाती - जो अवधिज्ञान केवलज्ञान होने से पहले नष्ट नहीं होता है वह अप्रति-पाती अवधिज्ञान है। जिस अवधिज्ञानी को सम्पूर्ण लोक के आगे एक भी प्रदेश जानने की शक्ति हो जाती है उसका अवधिज्ञान अप्रतिपाती समझना चाहिए। यह बात सामर्थ्य यानी शक्ति की अपेक्षा कही गई है। वास्तव में अलोकाकाश रूपी द्रव्यों से शून्य है इसलिए वहाँ अवधिज्ञानी कुछ नहीं देख सकता है। ये छहों भेद मनुष्यों में होने वाले क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के हैं । तिर्यंच में भी छह प्रकार का अवधिज्ञान हो सकता है।
साधु साध्वियों को ये छह कुत्सित वचन बोलना नहीं कल्पता हैं। यथा- अलीक वचन - झूठा वचन कहना । हीलित वचन - ईर्ष्या पूर्वक दूसरे को नीचा दिखाने वाले अवहिलना के वचन कहना । खिंसित वचन - दीक्षा से पहले की जाति या कर्म आदि को बार बार कह कर चिढ़ाना । परुष वचन - कठोर वचेना कहना । गृहस्थ वचन - गृहस्थों की तरह किसी को पिता, चाचा, मामा आदि कहना । व्युपशमित यानी शान्त हुए कलह को उभारने वाले वचन कहना । उपरोक्त प्रकार के वचन साधु साध्वियों को बोलने नहीं कल्पतें हैं ।
विवेचन अर्थावग्रह - इन्द्रियों द्वारा अपने अपने विषयों का अस्पष्ट ज्ञान अवग्रह कहलाता है । इसके दो भेद हैं - व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह। जिस प्रकार दीपक के द्वारा घटपटादि पदार्थ प्रकट किये जाते हैं उसी प्रकार जिसके द्वारा पदार्थ व्यक्त अर्थात् प्रकट हों ऐसे विषयों के इन्द्रियज्ञान योग्य स्थान में होने रूप सम्बन्ध को व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। अथवा दर्शन द्वारा पदार्थ का सामान्य प्रतिभास होने पर विशेष जानने के लिए इन्द्रिय और पदार्थों का योग्य देश में मिलना व्यञ्जनावग्रह है।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि अर्थ अर्थात् विषयों को सामान्य रूप से जानना अर्थावग्रह है। इसके छह भेद हैं - १. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह २. चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह ३. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह ४. रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह ५. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह ६. नोइन्द्रिय (मन) अर्थावग्रह |
रूपादि विशेष की अपेक्षा किए बिना केवल सामान्य अर्थ को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और मन से होता है इसलिए इसके उपरोक्त छह भेद हो जाते हैं।
अर्थावग्रह के समान ईहा, अवाय और धारणा भी ऊपर लिखे अनुसार पाँच इन्द्रिय और मन द्वारा होते हैं। इसलिए इनके भी छह छह भेद जानने चाहिए।
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