SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ६ १३९ भागा समखेत्ता तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता तंजहा - पुव्वाभहवया, कत्तिया, महा, पुव्वाफग्गुणी, मूलो, पुव्वासाढा । चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो छ णक्खत्ता णतंभागा अवडक्खेत्ता पण्णरसमुहत्ता पण्णत्ता तंजहा - सयभिसया, भरणी, अहा, अस्सेसा, साई, जेट्ठा । चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो छ णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्डक्खेत्ता पणयाली समुहुत्ता पण्णत्ता तंजहा - रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तराफग्गुणी, विसाहा, उत्तरासाढा, उत्तराभहवया॥५३॥ कठिन शब्दार्थ - विमाणपत्थडा - विमान प्रस्तट (पाथडे), पुव्वं भागा - पूर्व भाग में, णतंभागा-समयोगी, अवडखेत्ता.- अर्द्ध क्षेत्र वाले । भावार्थ- ब्रह्मलोक नामक छठे देवलोक के छह विमान पाथड़े कहे गये हैं यथा - अरत, विरत नीरत, निर्मल, वितिमिर और विशुद्ध । ज्योतिषी देवों के राजा ज्योतिषी देवों के इन्द्र चन्द्रमा के पूर्वभाग में तीस मुहूर्त के समक्षेत्र वाले छह नक्षत्र कहे गये हैं यथा - पूर्वभाद्रपदा, कृतिका, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, मूला और पूर्वाषाढा । ज्योतिषी देवों के राजा ज्योतिषी देवों के इन्द्र चन्द्रमा के समयोगी अर्द्ध . क्षेत्र पाले पन्द्रह मुहूर्त वाले छह नक्षत्र कहे गये हैं यथा - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा । ज्योतिषी देवों के राजा ज्योतिषियों के इन्द्र चन्द्रमा के उभयभाग अर्थात् पूर्व पश्चिम भाग में डेढ क्षेत्र वाले और पैंतालीस मुहू के छह नक्षत्र कहे गये हैं यथा - रोहिणी, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा उत्तराषाढा, उत्तरभाद्रपदा । विवेचन - वैमानिक देवों के कुल ६२ विमान प्रस्तट (पाथडे) कहे गये हैं। जैसा कि कहा है - तिरस बारस छ पंच चेव चत्तारि चउसु कप्पेसु। गेवेग्जेसु तिय तिय एगो य अणुत्तरेसु भवे॥ - पहले दूसरे देवलोक में १३, तीसरे चौथे देवलोक में १२, पांचवें देवलोक में ६, छठे में ५, सातवें देवलोक में ४, आठवें देवलोक में चार, मौवे-दसवें देवलोक में ४, ग्यारहवें बारहवें देवलोक में ४ विमान प्रस्तट है। ग्रैवेयक की तीन त्रिक में तीन-तीन इस प्रकार नौ और पांच अनुत्तर विमानों में एक विमान प्रस्तट हैं। इस प्रकार कुल ६२ विमान प्रस्तट हैं। प्रस्तुत सूत्र में पांचवें देवलोक के छह विमान पाथडों के नाम बताये गये हैं। सात नरकों में ४९ प्रस्तट (पाथडे) हैं। जैसा कि कहा है - तेरसिक्कारस नव सत पंच तिण्णेव होंति एक्को य। पत्थड संखा एसा सत्तसु वि कमेण पुढवीसु॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy