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श्री स्थानांग सूत्र
बाहर निकल कर पृथ्वी को हरा भरा और वृक्षों को फल फूलों से लदा हुआ देखकर बड़े हर्षित होंगे। मांस खाना उनको भी अच्छा नहीं लगता था किन्तु दूसरा कोई उपाय न होने से परवशता (लाचारी) के कारण उन्हें मांस खाना पड़ता था। अब उन्होंने विचार किया कि जब मीठे फल खाने को मिलते हैं तो मांस क्यों खाया जाय ? ऐसा सोच कर मांस खाना छोड़ देंगे और नियम करेंगे कि जो मांस खायेगा उसे -जाति बाहर कर दिया जायेगा और वह अस्पृश समझा जायेगा। मांस छोडने में यह धर्म कार्य है ऐसा जानकर मांस नहीं छोडेंगे किन्तु जब मीठे फल मिलते हैं तो गन्दा और घृणित मांस क्यों खाया जाय ? . ऐसा जानकर वे मांस खाना छोड़ देंगे।
इन पांच मेघों की वर्षाद को लेकर कुछ लोग इनका सम्बन्ध संवत्सरी से जोड़ते हैं। उनमें से किन्हीं का कहना तो यह है कि सात मेघों की वर्षा होती है इसलिये ४९ दिन के बाद ५० वें दिन संवत्सरी आ जाती है। किन्तु उनका यह कहना तो सर्वथा आगम विरुद्ध है क्योंकि यहाँ आगम में पांच मेघों की वर्षा का ही वर्णन है। दूसरे पक्ष वालों का कहना है कि मेघ तो पांच ही वरसते हैं किन्तु दो मेघ वरसने के बाद सात दिन उघाड़ रहता है अर्थात् सात दिन वर्षा नहीं होती है। खुला रहता है इसी प्रकार चौथा मेघ बरसने के बाद भी सात दिन खुला रहता है। इस प्रकार सात सप्ताह के बाद अर्थात् ४९ दिन के बाद संवत्सरी आ जाती है किन्तु यह कहना आगमानुकूल नहीं है क्योंकि दो सप्ताह उघाड़ (खुला) रहने का वर्णन न आगम के मूल पाठ में है और न किसी टीका में है। यह सिर्फ अपने मत को पुष्ट करने के लिये कल्पना की गयी है। अतः मान्य नहीं हो सकती। इन मेघों की वर्षा से और संवत्सरी से परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। अवसर्पिणी काल में दूसरे आरे में इन मेघों की वर्षा होती ही नहीं है तथा उत्सर्पिणी काल में मेघों की वर्षा होने पर भी वे बिलवासी मनुष्य तो संवत्सरी में तो समझते ही नहीं है क्योंकि उस समय धर्म की प्रवृत्ति होती ही नहीं है। धर्म की प्रवृत्ति तो तीसरे आरे के अन्त में प्रथम तीर्थङ्कर को केवलज्ञान होने परे होती है। उस समय मेघ तो वरसते ही नहीं है। संवत्सरी पर्व तो तीर्थङ्करों द्वारा प्रचलित होता है बिलवासी मनुष्यों द्वारा नहीं। इसलिये मेघ के वरसना और बिलवासियों के साथ संवत्सरी पर्व को जोड़ना सर्वथा आगम विरुद्ध है।
संवत्सरी के समय का निर्धारण (निर्णय) तो समवायात सूत्र के सित्तरहवें समवाय से होता है वह पाठ इस प्रकार है -
"समणे भगवं महावीरे सवीसइराए मासे वइक्कंते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि वासावासं पज्जोसवेइ।"
अर्थ - वर्षा ऋतु का एक महिना और बीस दिन बीत जाने के बाद और सित्तर दिन बाकी रहने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने संवत्सरी पर्व मनाया था।
इस नियम को दोनों तरफ से बान्धा गया है इसलिये दोनों तरफ के नियम का पालन होना
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