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________________ स्थान ६ १२१ मनुष्यों के छहों संहनन और छहों संस्थान होंगे। उनकी अवगाहना बहुत से हाथ की और आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सौ वर्ष झाझेरी होगी। इस आरे के जीव मर कर अपने कर्मों के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न होंगे, परन्तु सिद्ध नहीं होंगे। यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का होगा। ३. दुषम सुषमा - यह आरा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होगा। इसका स्वरूप अवसर्पिणी के चौथे आरे के सदृश जानना चाहिए। इस आरे के मनुष्यों के छहों संस्थान और छहों संहनन होंगे। मनुष्यों की अवगाहना बहुत से धनुषों की होगी। आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व तक की होगी। मनुष्य मर कर अपने कर्मानुसार चारों गतियों में जायेंगे और बहुत से सिद्धि अर्थात् मोक्ष प्राप्त करेंगे। इस आरे में तीन वंश होंगे-तीर्थंकर वंश, चक्रवर्ती वंश और दशार वंश। इस आरे में तेईस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव होंगे। ४. सुषम दुषमा - यह आरा दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होगा और सारी बातें अवसर्पिणी के तीसरे आरे के समान होंगी। इसके भी तीन भाग होंगे किन्तु उनका क्रम उल्टा रहेगा। अवसर्पिणी के तीसरे भाग के समान इस आरे का प्रथम भाग होगा। इस आरे में ऋषभदेव स्वामी के समान चौवीसवें भद्रजिन तीर्थंकर होंगे। शिल्प कलादि तीसरे आरे से चले आएंगे इसलिए उन्हें कला आदि का उपदेश देने की आवश्यकता न होगी। कहीं-कहीं पन्द्रह कुलकर उत्पन्न होने की बात लिखी है। वे लोग क्रमशः धिक्कार, मकार और हकार दण्ड का प्रयोग करेंगे। इस आरे के तीसरे भाग में राजधर्म यावत् चारित्र धर्म का विच्छेद हो जायगा। दूसरे तीसरे त्रिभाग अवसर्पिणी के तीसरे आरे के दूसरे और पहले त्रिभाग के सदृश होंगे। ५-६. सुषमा और सुषम सुषमा नामक पांचवें और छठे आरे अवसर्पिणी के द्वितीय और प्रथम आरे के समान होंगे। __विशेषावश्यक भाष्य में सामायिक चारित्र की अपेक्षा काल के चार भेद किए गये हैं। १. उत्सर्पिणी काल २. अवसर्पिणी काल ३. नोउत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल और ४. अकाल। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी पहले बताए जा चुके हैं। महाविदेह क्षेत्र में अवसर्पिणी काल के चौथे आरे सरीखे भाव रहते हैं। इसलिये वहां पर कोई आरा नहीं होता है। एवं उन्नति और अवनति नहीं होती है इसलिये सदा एक सरीखा अवस्थित काल रहता है। उस जगह के काल को नोउत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल कहते हैं। अढाई द्वीप से बाहर के द्वीप समुद्रों में जहाँ सूर्य चन्द्र आदि स्थिर रहते हैं और मनुष्यों का निवास नहीं है, उस जगह अकाल है अर्थात् तिथि, पक्ष, मास, वर्ष आदि काल गणना नहीं है। - उत्सर्पिणी काल का दूसरा आरा सावण वदी एकम से प्रारंभ होता है। उस समय पुष्कर संवर्तक मेघ, क्षीर मेघ, घृत मेघ, अमृत मेघ और रस मेघ, ये पांच मेघ निरन्तर सात-सात दिन तक बरसते हैं। जिनके पैतीस दिन (५४७=३५) होते हैं। इसके बाद बादल साफ हो जाते हैं और वे बिलवासी मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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