SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ श्री स्थानांग सूत्र १. समचतुरस्त्र- सम का अर्थ है समान, चतुः का अर्थ है चार और अस्र का अर्थ है कोण । पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों गोडों का अन्तर, बाएं कन्धे से दाहिने गोडे का अन्तर और दाहिने कन्धे से बाएं गोडे का अन्तर समान हो (ये व्याख्या मनुष्य शरीर के लिये उपयुक्त है) अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले हों उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। २. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान - वट वृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं । जैसे वटवृक्ष ऊपर के भाग में फैला हुआ और नीचे के भाग में संकुचित होता है उसी प्रकार जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तार वाला और नीचे का भाग हीन अवयव वाला हो उसे न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहते हैं । ३. सादि संस्थान - यहाँ सादि शब्द का अर्थ नाभि से नीचे का भाग है । जिस संस्थान में नाभि से नीचे का भाग पूर्ण एवं पुष्ट हो और ऊपर का भाग हीन हो उसे सादि संस्थान कहते हैं । ४. कुब्ज संस्थान - जिस शरीर में हाथ पैर सिर गर्दन आदि अवयव ठीक हों परन्तु छाती, पेट, पीठ आदि टेढ़े हों उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं । ५. वामन संस्थान - जिस शरीर में पेट पीठ आदि अवयव पूर्ण हों परन्तु हाथ पैर आदि अवयव छोटे हों और जिसकी शरीर की ऊंचाई ५२ अंगुल हो, उसे वामन संस्थान कहते हैं। ६. हुण्डक संस्थान - . जिस शरीर के समस्त अवयव बेढब हों अर्थात् एक भी अवयव सामुद्रिक शास्त्र के प्रमाण के अनुसार न हो वह हुण्डक संस्थान है । : विवेचन - मनुष्य अढाई द्वीप में ही उत्पन्न होते हैं। उसके मुख्य छह विभाग हैं। यही मनुष्यों की उत्पत्ति के छह क्षेत्र हैं। वे इस प्रकार हैं - १. जम्बूद्वीप २. पूर्व धातकी खण्ड ३. पश्चिम धातकी खण्ड ४. पूर्व पुकरार्ध ५. पश्चिम पुष्करार्ध ६. अन्तर द्वीप। .. मनुष्य के छह प्रकार - मनुष्य के छह क्षेत्र ऊपर बताए गये हैं। इनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी क्षेत्रों के भेद से छह प्रकार के कहे जाते हैं। अथवा गर्भज मनुष्य के १. कर्मभूमि २. अकर्मभूमि ३. अन्तर द्वीप तथा सम्मूर्छिम के ४. कर्मभूमि ५. अकर्मभूमि और ६. अन्तर द्वीप इस प्रकार मनुष्य के छह भेद होते हैं। अवसर्पिणी काल के छह आरे - जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाय, आयु और अवगाहना घटते जायं तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम का हास होता जाय वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं। शुभ भाव घटते जाते हैं और अशभ भाव बढ़ते जाते हैं। अवसर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। __ अवसर्पिणी काल के छह विभाग हैं, जिन्हें आरे कहते हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सुषम सुषम्रा २. सुषमा ३. सुषम दुषमा ४. दुषम सुषमा ५. दुषमा ६. दुषम दुषमा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy