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________________ ११२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 - छह वस्तुएं सभी जीवों को सुलभ-सरलता से प्राप्त नहीं होती अर्थात् कठिनता से प्राप्त होती है परन्तु अलभ्य नहीं हैं क्योंकि कई जीवों को उनका लाभ होता है। वे इस प्रकार हैं - मनुष्य संबंधी भव सुलभ नहीं है। कहा है - "खद्योत और बिजली की चमक जैसा चंचल यह मनुष्य भव अगाध संसार रूप समुद्र में यदि गुमा दिया है तो पुनः मिलना अति दुर्लभ है।" इसी प्रकार २५॥ देश रूप आर्य क्षेत्र में जन्म होना भी दुर्लभ है। कहा भी है - "मनुष्य भव प्राप्त होने पर भी आर्य भूमि में उत्पन होना अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होकर प्राणी धर्माचरण के प्रति जागृत हो सकता है।" ईक्ष्वाकु आदि कुल में प्रत्यायाति (जन्म) सुलभ नहीं है। कहा है - "आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने पर भी सत्कुल की प्राप्ति होना सुलभ नहीं है। सत्कुल में उत्पन्न प्राणी चारित्र को प्राप्त कर सकता है।" केवली प्ररूपित धर्म का सुनना भी दुर्लभ है। कहा है - आहच्च सवणं लद्धं सद्धा परम दुल्लहा। सोच्चा णेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ॥ - कदाचित् धर्म श्रवण की प्राप्ति हो जाय परंतु उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है क्योंकि बहुत से जीव नैयायिक-सम्यक् मार्ग को सुन कर भी भ्रष्ट हो जाते हैं। सामान्य से श्रद्धा किया हुआ, युक्तियों से प्रतीत (निश्चय) किया हुआ अथवा प्रीतिक-स्व विषय में उत्पन्न प्रीति वाले को अथवा रोचित-की हुई इच्छा वाले धर्म को सम्यग्-अविरत की तरह मनोरथ मात्र से नहीं परंतु यावत् काया से स्पर्श करना दुर्लभ है। कहा है - धर्मपि हु सहहतया, दुल्लहया कारण फासया। इह कामगुणेसु मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए॥७॥ - सर्वज्ञ प्रणीत धर्म पर श्रद्धा करते हुए भी काया से स्पर्शनता-आचरण करना दुर्लभ है क्योंकि इस संसार में शब्दादि विषयों में जीव मूर्च्छित और गृद्ध है। अतः धर्म की सामग्री को प्राप्त कर हे गौतम ! एक समय मात्र का प्रमाद मत करो। ___ मनुष्य भव आदि की दुर्लभता प्रमाद आदि में आसक्त प्राणियों को ही होती है, सभी को नहीं। अतः मनुष्य भव को लक्ष्य में रख कर कहा है - एवं पुण एवं खलु अण्णाणपमायदोसओ णेयं।जं दीहा कायठिई, भणिया एगिदियाईणं। एसा य असइदोसा-सेवणओ धम्मवज्जचित्ताणं। ता धम्मे जइयव्वं, सम्म सइ धीरपुरिसेहिं॥ - इस प्रकार मनुष्य जन्म की दुर्लभता निश्चय में जानना। अज्ञान और प्रमाद के दोष से एकेन्द्रिय आदि जीवों की दीर्घ कायस्थिति कही गयी है अर्थात् एकेन्द्रिय आदि में गये हुए प्राणी का असंख्यात अथवा अनंतकाल बीत जाता है। बारम्बार दोष सेवन से धर्म रहित चित्त वाले जीवों की इस प्रकार कायस्थिति होती है। इस कारण धीर पुरुषों को सदैव सम्यक् रूप से धर्म में यत्न करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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