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स्थान ६
कर उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करना, केवलि प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करके सम्यक् प्रकार से काया द्वारा उस पर आचरण करना। इन्द्रियों के छह विषय कहे गये हैं यथा - श्रोत्रेन्द्रिय का विषय, चक्षुइन्द्रिय का विषय, घ्राणेन्द्रिय का विषय, रसनेन्द्रिय का विषय, स्पर्शनेन्द्रिय का विषय और नोइन्द्रिय यानी मन का विषय । छह प्रकार का संवर कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय संवर, चक्षुइन्द्रिय संवर, घ्राणेन्द्रिय संवर, रसनेन्द्रिय संवर, स्पर्शनेन्द्रिय संवर और नोइन्द्रिय यानी मन सम्बन्धी संवर । छह प्रकार का असंवर कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय असंवर और नोइन्द्रिय यानी मन सम्बन्धी असंवर । छह प्रकार की साता यानी सख कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी सुख यावत् स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख और नोइन्द्रिय यानी मन सम्बन्धी सुख । छह प्रकार की असाता यानी दःख कहा गया है यथा - श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी दःख यावत स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख और नोइन्द्रिय यानी मन सम्बन्धी दुःख ।
प्रायश्चित्त - प्रमादवश किसी दोष के लग जाने पर उसकी विशुद्धि के लिए आलोचना करना या उसके लिए गुरु के कहे अनुसार तपस्या आदि करना प्रायश्चित्त कहलाता है । वह प्रायश्चित्त छह प्रकार का कहा गया है यथा - आलोचनार्ह - संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट करना आलोचना है। जो प्रायश्चित्त आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय उसे आलोचनाई या आलोचना प्रायश्चित्त कहते हैं। प्रतिक्रमणार्ह - जो दोष सिर्फ प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाय, वह प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त है। तदुभयार्ह - जो दोष आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से शुद्ध होता हो वह तदुभयाह है। विवेकाह - जो दोष आधाकर्मादि अशुद्ध आहार आदि को परिठवने से शुद्ध हो जाय। व्युत्सगार्ह - कायोत्सर्ग यानी शरीर के व्यापार को रोक कर ध्येय वस्तु में उपयोग लगाने से जिस दोष की शुद्धि होती है वह व्युत्सगार्ह प्रायश्चित्त है। तपार्ह - तपस्या करने से जिस दोष की शुद्धि हो वह तपार्ह प्रायश्चित्त कहलाता है ।
विवेचन - दुर्लभ - जो बातें अनन्त काल तक संसार चक्र में भ्रमण करने के बाद कठिनता से प्राप्त हों तथा जिन्हें प्राप्त करके जीव संसार चक्र को काटने का प्रयत्न कर सके उन्हें दुर्लभ कहते हैं। वे छह हैं -
.१. मनुष्य जन्म २. आर्य क्षेत्र (साढ़े पच्चीस आर्य देश) ३. धार्मिक कुल में उत्पन्न होना ४. केवली प्ररूपित धर्म का सुनना ५. केवली प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करना ६. केवली प्ररूपित धर्म का आचरण करना। __ इन बोलों में पहले से दूसरा, दूसरे से तीसरा इस प्रकार उत्तरोत्तर अधिकाधिक दुर्लभ हैं। अज्ञान, प्रमाद आदि दोषों का सेवन करने वाले जीव इन्हें प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसे जीव एकेन्द्रिय आदि में जन्म लेते हैं, जहां काय स्थिति बहुत लम्बी है।
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