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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000
छह कारणों से निर्ग्रन्थ साधु साध्वी को ग्रहण करता हुआ अथवा सहारा देता हुआ भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । यथा - शोक से क्षिप्त चित्त वाली, हर्ष से दृप्त चित्त वाली, यक्षाधिष्ठित, उन्माद प्राप्त, उपसर्ग प्राप्त और क्रोध करके आई हुई। यदि कोई स्वधर्मी साधु साध्वी काल धर्म को प्राप्त हो जाय, तो उसके साथ छह बातों का आचरण करते हुए साधु और साध्वी भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं । यथा - उपाश्रय के घर से बाहर निकालते हुए, उपाश्रय से बाहर निकाल कर फिर बहुत दूर बाहर ले जाते हुए बन्धन आदि करते हुए एवं मृत साधु साध्वी के स्वजन आदि उसे अलङ्कत करते हों तो उनके प्रति उदासीन भाव रखते हुए अथवा रात्रिजागरण करते हुए अथवा उस समय में होने वाले व्यन्तरादि के उपद्रव को शान्त करते हुए, मृतसाधु के स्वजनादि को उसके मरण की सूचना देते हुए और उस मृतसाधु के शरीर को मौनस्थ होकर परिठाने के लिए जाते हुए साधु साध्वी भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं।
विवेचन - सूत्र का अभिसंबंध इस प्रकार है। पूर्व सूत्र में पांच गुण वाले रूक्ष पुद्गल अनंत कहे हैं। उन भावों को कहने वाले अर्थ से अरिहन्त (तीर्थंकर) और सूत्र रूप से गून्थन करने वाले गणधर है। गुणों से युक्त अनगार में गण धारण करने की योग्यता होती है। ऐसे गुण वाले गणधरों के गुणों को दिखाने के लिये ही यह सूत्र कहा है। गुण विशेष छह स्थानों से संपन्न (युक्त) अनगार-भिक्षु, गच्छ को मर्यादा में स्थापित करने के लिए अथवा पालन करने हेतु योग्य होता है। वे गुण ऊपर भावार्थ में स्पष्ट कर दिये गये हैं। ग्रंथान्तर में गण स्वामी के अन्य गुण इस प्रकार बताये हैं -
सुत्तत्थे णिम्माओ, पियदढधम्मोऽणुवत्तणा कुसलो। जाइकुल संपन्नो, गंभीरो लद्धिमंतो य॥ .. संगहुवग्गहणिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य। एवं विहो उ भणिओ, गणसामी जिणवरिंदेहिं॥
अर्थात् - १. सूत्रार्थ में निष्णात २. प्रियधर्मी ३. दृढधर्मी ४. अनुवर्तना में कुशल-उपाय का जानकार ५. जाति संपन्न ६. कुल संपन्न ७. गंभीर ८. लब्धिसंपन्न ९-१०. संग्रह और उपग्रह के विषय में तत्पर अर्थात् उपदेश आदि से संग्रह और वस्त्रादि से उपग्रह (सहाय), अन्य आचार्य वस्त्रादि से उपग्रह कहते हैं ११. कृत क्रिया के अभ्यास वाला १२. प्रवचनानुरागी और 'च' शब्द से स्वभाव से ही परमार्थ में प्रवर्तित, इस प्रकार के गच्छाधिपति तीर्थंकरों ने कहे हैं।
गणधर कृत मर्यादाओं में वर्तता हुआ निग्रंथ जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। पांचवें स्थानक में पांच कारण बताये हैं। यहां छठे स्थानक में उन्हीं कारणों की विशेष व्याख्या की गयी है। साधु के लिये साध्वी स्पर्श के ये आपवादिक कारण हैं। आगे के सूत्र में बताया है कि साधु या साध्वियाँ ये दोनों छह कारणों से समान धर्म वाले साधु को अथवा किसी साध्वी को कालगत (मृतक) जान कर उसकी, उत्थापना आदि विशेष क्रिया करते हुए तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते हैं।
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