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________________ स्थान ५ उद्देशक ३ इसलिये कारण में कार्य का उपचार किया गया है अथवा जिसके द्वारा, जिससे, जो सुना जाता है वह श्रुत अर्थात् श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम रूप है अथवा श्रुत के उपयोग रूप परिणाम से अनन्य होने से आत्मा ही सुनती है अतः आत्मा ही श्रुत है। यह निश्चय नय की अपेक्षा से समझना चाहिए। श्रुत रूप ज्ञान, श्रुतज्ञान कहलाता है। . ३. अवधिज्ञान - "अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते मर्यादया वा इति अवधिज्ञानम्" ____ अर्थ - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी द्रव्य को मर्यादापूर्वक जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। इसका विषय नीचे नीचे विस्तृत होता जाता है यह ज्ञान सीधा आत्मा से सम्बन्ध रखता है। इसलिये इसको पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान भी कहते हैं। अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से यह ज्ञान उत्पन्न होता है। देव और नारकी जीवों को यह ज्ञान जन्म से ही होता है। इसलिये इसको भव प्रत्यय कहते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्चों को यह आत्मिक गुणों की प्रकर्षता से होता है इसलिये मनुष्य और तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान "लब्धि प्रत्यय" कहलाता है। ४. मनः पर्यवज्ञान - अढ़ाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मन द्वारा चिन्तित रूपी पदार्थों को जानने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान कहलाता है। 'पर्यव' शब्द संस्कृत में "अव गतौ" धातु से बना है जिसका अर्थ है मर्यादापूर्वक जानना। इस ज्ञान के दो शब्द और भी हैं वे ये हैं - 'मनः पर्याय' और 'मनपर्यय'। इसमें 'परि' जिसका अर्थ है सर्व प्रकार से। 'आय' और 'अय' ये दोनों शब्द 'अय गतौ' धातु से बने हैं जिनका अर्थ है जानना। पूरा शब्द मनःपर्यव, मनःपर्याय और मनःपर्यव बनता है। जिसका अर्थ है मन में रहे हुए भावों को जानना। यह ज्ञान भी पारमार्थिक प्रत्यक्ष के अंतर्गत है। मनः पर्याय ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है। यह ज्ञान सातवें गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत (अप्रमादी साधु) को ही उत्पन्न होता है और बारहवें गुणस्थान तक रह सकता है। केवल ज्ञान - केवलज्ञानावरणीय कर्म के समस्त क्षय से उत्पन्न होने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान क्षायिक ज्ञान है। इसमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान इन चारों ज्ञानों की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती है। बल्कि ये चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं इसलिये इन चारों ज्ञानों के सर्वथा नष्ट हो जाने पर यह केवलज्ञान उत्पन्न होता है-जैसा कि कहा है - णट्ठम्मि य छाउमत्थिय णाणे। अर्थ - छद्मस्थ सम्बन्धी मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानों के नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसमें किसी ज्ञान की सहायता की अपेक्षा न होने से इसको असहाय कहते हैं। यह ज्ञान अकेला ही रहता है इसलिये इसे "केवल" (मात्र एक) कहते हैं। यह सदा शाश्वत रहता है इसलिये यह त्रिकालवर्ती एवं त्रिलोकवर्ती कहलाता है। यह सम्पूर्ण आवरण रूप मल, कलङ्क रहित होने के कारण www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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