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श्री स्थानांग सूत्र
इसको 'संशुद्ध' कहते हैं। जानने योग्य पदार्थ अनन्त हैं उन सबको यह ज्ञान जानता है इसलिये इसको 'अनन्त' भी कहते हैं। केवलज्ञान के साथ केवलदर्शन अवश्य उत्पन्न होता है। इन दोनों को धारण करने वाले को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी केवली कहते हैं। ___ कुछ लोगों की मान्यता है कि - केवलज्ञान हो जाने पर मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान, इन चारों ज्ञानों का केवलज्ञान में अन्तर्भाव (समावेश) हो जाता है किन्तु यह मान्यता आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक भाव में है और मतिज्ञान आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है। इसलिए क्षायोपशमिक भाव का क्षायिक में समावेश नहीं होता है।
ज्ञानावरणीय कर्म - ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट हो जाती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों का ज्ञान करने में रुकावट पड़ जाती है। परन्तु यह कर्म आत्मा को सर्वथा ज्ञानशून्य अर्थात् जड़ नहीं कर देता। जैसे घने बादलों से सूर्य के ढंक जाने पर भी सूर्य का, दिन रात बताने वाला, प्रकाश तो रहता ही है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म से ज्ञान के ढक जाने पर भी जीव में इतना ज्ञानांश तो रहता ही है कि वह जड़ पदार्थ से पृथक् समझा जा सके।
ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद - १. मति ज्ञानावरणीय २. श्रुत ज्ञानावरणीय ३. अवधि ज्ञानावरणीय ४. मनः पर्यय ज्ञानावरणीय ५. केवल ज्ञानावरणीय।
१. मति ज्ञानावरणीय - मति ज्ञान के एक अपेक्षा से तीन सौ चालीस भेद होते हैं। इन सब ज्ञान के भेदों का आवरण करने वाले कर्मों को मति ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
२.भुत ज्ञानावरणीय - चौदह अथवा बीस भेद वाले श्रुतज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों को श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
३. अवधि ज्ञानावरणीय - भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय तथा अनुगामी, अननुगामी आदि भेद वाले अवधिज्ञान के आवारक कर्मा को अवधि झानावरणीय कर्म कहते हैं।
४. मनः पर्यय ज्ञानावरणीय - ऋजुमति और विपुलमति भेद वाले मनः पर्यय ज्ञान का आच्छादन करने वाले कर्म को मनः पर्यय ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
५. केवल ज्ञानावरणीय - केवल ज्ञान का आवरण करने वाले कर्म को केवल ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।
इन पांच ज्ञानावरणीय कर्मों में केवल ज्ञानावरणीय सर्वघाती है और शेष चार कर्म देशघाती है।
स्वाध्याय - शोभन रीति से मर्यादा पूर्वक अस्वाध्याय काल का परिहार करते हुए शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पांच भेद - १. वाचना २. पृच्छना ३. परिवर्तना ४. अनुप्रेक्षा , ५. धर्मकथा।
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