________________
श्री स्थानांग सूत्र
करना कषाय प्रतिक्रमण कहलाता है । योग प्रतिक्रमण मन, वचन, काया के अशुभ योगों से आत्मा को अलग करना योग प्रतिक्रमण कहलाता है । भाव प्रतिक्रमण - आस्त्रवद्वार, मिथ्यात्व योग में तीन करण, तीन योग से प्रवृत्ति न करना भाव प्रतिक्रमण कहलाता है ।
विवेचन - सूत्रकार ने ज्ञान के पांच भेद कहे हैं। किसी भी वस्तु को जानना ज्ञान कहलाता है। अर्थात् सम्यक् प्रकार से बोध अथवा जिसके द्वारा या जिससे जाना जाए वह ज्ञान कहलाता है। अर्थात् उसके आवरण का क्षय अथवा क्षयोपशम के परिणामयुक्त आत्मा जिससे जानता है वह ज्ञान कहलाता है। वह स्व विषय का ग्रहण रूप होने से अर्थ रूप से तीर्थंकरों द्वारा और सूत्र रूप से गणधरों के द्वारा प्ररूपित है। जैसा कि कहा है
९८
अत्यं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हिट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ॥
(आवश्यक निर्युक्ति)
• अरिहंत अर्थ को ही कहते हैं सूत्र को नहीं। गणधर सूक्ष्म अर्थ को कहने वाले सूत्र को गूंथते हैं-रचते हैं अथवा नियत गुण वाले सूत्र की रचना करते हैं जिससे शासन के हित के लिये सूत्र की प्रवृत्ति होती है।
शुद्धि के भेद से प्रत्याख्यान पांच प्रकार का कहा गया है। उपरोक्त पांच के सिवाय 'ज्ञान शुद्ध प्रत्याख्यान' छठा भेद भी कहा गया है। किन्तु ज्ञान शुद्ध का समावेश श्रद्धान शुद्ध में हो जाता है क्योंकि श्रद्धान भी ज्ञान विशेष ही है अथवा यहाँ पांचवा ठाणा होने से पांच का ही कथन किया गया है।
प्रति-क्रमण अर्थात् प्रतिकूल क्रमण (गमन) । शुभयोगों से अशुभ योग में गये हुए आत्मा का वापिस शुभ योग में आना प्रतिक्रमण कहलाता है। जैसा कि कहा है:
स्वस्थानात् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥
अर्थ - प्रमादवश आत्मा के निज गुणों को त्याग कर पर - गुणों में गये हुए आत्मा का वापिस आत्मगुणों में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग के भेद से भी प्रतिक्रमण पांच प्रकार का कहा जाता है। किन्तु वास्तव में ये पांच भेद और उपरोक्त पांच भेद एक ही हैं क्योंकि अविरति और प्रमाद का समावेश आस्रवद्वार में हो जाता है।
१. आभिनिबोधिक ज्ञान पांच इन्द्रियाँ और मन की सहायता से योग्य स्थान में रहे हुए पदार्थ को जानने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है इसका दूसरा नाम मतिज्ञान है ।
२. श्रुत ज्ञान - पांच इन्द्रयाँ और मन की सहायता शब्द से सम्बन्धित अर्थ को जानने वाले, ज्ञान को श्रुत ज्ञान कहते हैं। इसमें शब्द की प्रधानता होती है क्योंकि शब्द भाव श्रुत का कारण होता है।
,
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org