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________________ स्थान ५ उद्देशक ३ .९७ अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए रूपी द्रव्य का ज्ञान करना अवधिज्ञान कहलाता है । मनःपर्यय ज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मन में रहे हुए भावों को जानना मनःपर्यय ज्ञान कहलाता है । केवलज्ञान - मतिज्ञान आदि की अपेक्षा बिना त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को एक साथ हस्तामलकवत् जानना केवलज्ञान है । ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार का कहा गया है । यथा - आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय - मति ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यय ज्ञानावरणीय और केवल ज्ञानावरणीय। स्वाध्याय - असण्झाय के काल को टाल कर अच्छी तरह से शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है । स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है । यथा - वाचना - शिष्य को सूत्र और अर्थ पढाना, पृच्छना-शास्त्र की वाचना लेकर उसमें संशय होने पर फिर पूछना पृच्छना कहलाती है अथवा पहले सीखे हुए सूत्रादि ज्ञान में शंका होने पर प्रश्न करना पृच्छना कहलाती है । परिवर्तना - पढ़ा हुआ ज्ञान भूल न जाय इसलिए उसे बारबार फेरना परिवर्तना कहलाती है । अनुप्रेक्षा - सीखे हुए सूत्रार्थ का मनन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है और धर्मकथा - उपरोक्त चारों प्रकार से शास्त्र का अभ्यास करने पर भव्य जीवों को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना धर्मकथा कहलाती है । . पच्चक्खाण-प्रत्याख्यान पांच प्रकार से शुद्ध होता है । शुद्धि के भेद से प्रत्याख्यान भी पांच प्रकार : का कहा गया है । यथा - श्रद्धान शुद्ध - जिनकल्प, स्थविरकल्प एवं श्रावक धर्म विषयक तथा सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, पहला पहर, चौथा पहर एवं चरमकाल में सर्वज्ञ भगवान् ने जो प्रत्याख्यान कहे हैं उन पर श्रद्धा रखना, श्रद्धान शुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है । विनय शुद्ध - प्रत्याख्यान करते समय मन, वचन, काया को एकाग्र रखना तथा वन्दना आदि की पूर्ण विशुद्धि रखना विनय शुद्धि कहलाती है । अनुभाषणशुद्ध-जब गुरु महाराज प्रत्याख्यान करावें उस समय उन्हें वन्दना करके हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़े होना और गुरु महाराज जो अक्षर, पद उच्चारण करें उन्हें धीमे स्वर से वापिस दोहराते हुए उनके पीछे पीछे बोलना तथा जब गुरु महाराज "वोसिरे" कहें तब "वोसिरामि" कहना अनुभाषण शुद्ध कहलाता है । अनुपालन शुद्ध - अटवी, दुष्काल तथा ज्वर आदि एवं कोई महारोग हो जाने पर भी प्रत्याख्यान का भङ्ग न करते हुए उसका पालन करना अनुपालन शुद्ध कहलाता है । भावशुद्ध - राग, द्वेष आदि परिणाम से प्रत्याख्यान को दूषित न करना भाव शुद्ध कहलाता है । पांच प्रकार का प्रतिक्रमण कहा गया है । यथा - आस्रव द्वार प्रतिक्रमण - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांच आस्रव द्वारों से निवृत्त होना और इनका फिर सेवन न करना आस्रवद्वार प्रतिक्रमण कहलाता है । मिथ्यात्व प्रतिक्रमण - उपयोग से या अनुपयोग से अथवा सहसाकार वश आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम में प्राप्त होने पर उससे निवृत्त होना मिथ्यात्व प्रतिक्रमण कहलाता है । कषाय प्रतिक्रमण - क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय परिणाम से आत्मा को निवृत्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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