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________________ श्री स्थानांग सूत्र 000000 १. एकत: अनन्तक एक अंश से अर्थात् लम्बाई की अपेक्षा जो अनन्तक है वह एकतः अनन्तक है। जैसे- एक श्रेणी वाला क्षेत्र । २. द्विधा अनन्तक- दो प्रकार से अर्थात् लम्बाई और चौड़ाई की अपेक्षा जो अनन्तक है। वह द्विधा अनन्तक कहलाता है। जैसे प्रतर क्षेत्र । ३. देश विस्तार अनन्तक रुचक प्रदेशों की अपेक्षा पूर्व पश्चिम आदि दिशा रूप जो क्षेत्र का एक देश है और उसका जो विस्तार है उसके प्रदेशों की अपेक्षा जो अनन्तता है। वह देश विस्तार अनन्तक है। ४. सर्व विस्तार अनन्तक सारे आकाश क्षेत्र का जो विस्तार है उसके प्रदेशों की अनन्तता सर्व विस्तार अनन्तक है। ५. शाश्वत अनन्तक- अनादि अनंन्त स्थिति वाले जीवादि द्रव्य शाश्वत अनन्तक कहलाते हैं। ज्ञान, ज्ञानावरणीय कर्म, स्वाध्याय प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण पंचविहे णाणे पण्णत्ते तंजहा - आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे, केवलणाणे । पंचविहे जाणावरणिजे कम्मे पण्णत्ते तंजहा आभिणिबोहियणाणावरणिज्जे जाव केवलणाणावरणिज्जे । पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते तंजहा - वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते तंजहा - सद्दहणसुद्दे, विणयसुद्धे, अणुभासणासुद्धे, अणुपालणासुद्धे, भावसुद्धे । पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते तंजहा - आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे ॥ ३८ ॥ कठिन शब्दार्थ - आभिणिबोहियणाणावरणिजे अभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय, सज्झाए - स्वाध्याय, वायणा वाचना, पुच्छणा - पृच्छना, परियट्टणा परिवर्तना, अणुप्पेहा अनुप्रेक्षा, धम्मका - धर्मकथा, पच्चक्खाणे प्रत्याख्यान, सहणसुद्दे श्रद्धान शुद्ध, अणुभासणासुद्धे - अनुभाषण शुद्ध, पडिक्कमणे प्रतिक्रमण, आसवदार पडिक्कमणे- आस्त्रवद्वार प्रतिक्रमण । - भावार्थ - पांच प्रकार का ज्ञान कहा गया है यथा आभिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान अथवा मतिज्ञान कहलाता है । श्रुतज्ञान - शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण करने वाला इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुत ज्ञान कहलाता है । अथवा मतिज्ञान के बाद होने वाला और जिसमें शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है । जैसे घट शब्द को सुनने पर अथवा घड़े को आंख से देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का और इसी प्रकार उस सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयों का विचार करना श्रुतज्ञान है । ९६ 000 Jain Education International - - - - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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