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श्री स्थानांग सूत्र
वाला, प्रतिस्रोतचारी यानी पानी के प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला, अन्तचारी यानी पानी के पसवाड़े चलने वाला, मध्यचारी यानी पानी के बीच में चलने वाला और सर्वखोतचारी यानी पानी में सब प्रकार से चलने वाला मच्छ । इसी प्रकार मच्छ की उपमा से भिक्षा लेने वाले भिक्षुक के भी पांच प्रकार कहे गये हैं यथा - अनुस्रोतचारी यानी अभिग्रहविशेष से उपाश्रय के समीप से प्रारम्भ करके क्रम से भिक्षा लेने वाला साधु । प्रतिस्रोतचारी यानी अभिग्रहविशेष से उपाश्रय से बहुत दूर जाकर वापिस लौटते हुए भिक्षा लेने वाला साधु । अन्तचारी यानी क्षेत्र के अन्त में जाकर वहां से भिक्षा लेने वाला साधु । मध्यचारी यानी क्षेत्र के बीच बीच के घरों से भिक्षा लेने वाला साधु और सर्वस्रोतचारी यानी सब प्रकार से भिक्षा लेने वाला साधु सर्वस्रोतचारी कहलाता है । ये सब अभिग्रहधारी साधु के भेद हैं । ___ वनीपक - दूसरों के आगे अपनी दुर्दशा दिखा कर अनुकूल भाषण कर भिक्षा लेने वाला साधु वनीपक कहलाता है । अथवा दाता द्वारा माने हुए श्रमणादि का अपने को भक्त बतला कर जो भिक्षा मांगता है वह वनीपक कहलाता है । उसके पांच भेद कहे गये हैं यथा - अतिथि वनीपक - भोजन के समय उपस्थित होकर दाता के सामने अतिथिदान की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला । कृपण वनीपक- जो दाता कृपण, दीन, दुःखी पुरुषों को दान देने में विश्वास रखता है उसके आगे कृपणदान की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला । ब्राह्मण वनीपक - जो दाता ब्राह्मणों का भक्त है उसके आगे ब्राह्मणदान की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला । श्वा वनीपक - कुत्ते, कौए आदि को आहारादि देने में पुण्य समझने वाले दाता के आगे इस कार्य की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला और श्रमण वनीपक - जो दाता श्रमणों का भक्त है उसके आगे श्रमणदान की प्रशंसा करके आहारादि चाहने वाला श्रमण वनीपक कहलाता है।
विवेचन - पाँच बोल छमस्थ साक्षात् नहीं जानता - १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. शरीर रहित जीव ५. परमाणु पुद्गल। ___धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त हैं इसलिये अवधिज्ञानी उन्हें नहीं जानता। परन्तु परमाणु पुद्गल मूर्त (रूपी) हैं और उसे अवधिज्ञानी जानता है। इसलिये यहां छद्मस्थ से अवधि ज्ञान आदि के अतिशय रहित छदस्थ ही का आशय है।।
पाँच अनुत्तर विमान-१. विजय २. वैजयन्त ३. जयन्त ४. अपराजित ५. सर्वार्थसिद्ध।
ये विमान अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्तम होते हैं तथा इन विमानों में रहने वाले देवों के शब्द यावत् स्पर्श सर्व श्रेष्ठ होते हैं। इसलिये ये अनुत्तर विमान कहलाते हैं। एक बेला (दो उपवास) तप से श्रेष्ठ साधु जितने कर्म क्षीण करता है उतने कर्म जिन मुनियों के बाकी रह जाते हैं के अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों के जीव तो सात लव की स्थिति के कम रहने से वहां जाकर । उत्पन्न होते हैं।
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