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________________ स्थान २ उद्देशक २ गतिसमापन्नक और इसी प्रकार जानना चाहिए। नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा अगतिसमापन्नक। यावत् वैमानिक । नैरंयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा प्रथम समयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न यावत् वैमानिक । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - आहारक और अनाहारक अर्थात् विग्रहगति एक दो यावत् तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते हैं। यावत् वैमानिक । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्तक और नोच्छ्वासक यानी उच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्तक। यावत् वैमानिक । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - सेन्द्रिय यानी इन्द्रिय पर्याप्ति से पर्याप्तक और अनिन्द्रिय यानी इन्द्रिय पर्याप्ति से अपर्याप्तक। यावत् वैमानिक । नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं यथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक । यावत् वैमानिक। नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा संज्ञी और असंज्ञी । इस प्रकार यात् पञ्चेन्द्रियों तक जानना चाहिए किन्तु सब एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय को छोड़ कर जानना चाहिए क्योंकि ये असंज्ञी ही होते हैं। यावत् वाणव्यन्तर देवों तक संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद होते हैं क्योंकि असंज्ञी जीव वाणव्यन्तर देवों तक ही उत्पन्न होते हैं किन्तु ज्योतिषी और वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा भाषक यानी भाषा पर्याप्ति को पूर्ण कर लेने वाले और अभाषक यानी जब तक वे भाषा पर्याप्ति को पूर्ण नहीं करते हैं तब तक अभाषक हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर बाकी सब जीवों के लिए जानना चाहिए क्योंकि एकेन्द्रियों में भाषापर्याप्ति नहीं होती, इसलिए वे अभाषक कहलाते हैं। नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - समदृष्टि और मिथ्यादृष्टि । एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर शेष सभी दण्डकों में इसी तरह कहना चाहिए क्योंकि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - परित संसारी और अनन्त संसारी यावत् वैमानिक देवों तक इसी तरह जानना चाहिए। नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - संख्यात काल की स्थिति वाले और असंख्यात काल की स्थिति वाले। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय यानी बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों को छोड़ कर पञ्चेन्द्रिय यावत् वाणव्यन्तर देवों तक इसी तरह कहना * चाहिए। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों की संख्यात वर्ष की ही स्थिति होती है और ज्योतिषी और वैमानिक देवों की असंख्यात वर्ष की ही स्थिति होती है। नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं यथा सुलभबोधि और दुर्लभबोधि । यावत् वैमानिक देव । नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं यथा कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक। यावत् वैमानिक देव । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथाचरम और अचरम यावत् वैमानिक देवों तक इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में सोलह प्रकार से चौबीस दण्डक के दो-दो भेद बतलाये हैं। Jain Education International - - For Personal & Private Use Only - ७३ - J www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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