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________________ श्री स्थानांग सूत्र 000000 १. भवसिद्धिक (सूत्र) - नैरयिक जीव दो प्रकार के होते हैं- भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक यावत् वैमानिकदेवों तक चौबीस ही दण्डक में इसी प्रकार कहना चाहिये । २. अनन्तर दंडक - एक जीव के साथ में बिना अंतर के (उसी समय में) उत्पन्न दूसरे जीव अनन्तरोपपन्नक और पूर्वोक्त से विपरीत रूप में (एक के बाद एक, भिन्न भिन्न समय में) उत्पन्न जीव परंपरोपनक कहलाते हैं अथवा विवक्षित देश (क्षेत्र) की अपेक्षा जो अंतर रहित उत्पन्न हुए वे अनन्तरोपन्नक और विवक्षित देश में परंपरा से उत्पन्न हुए जीव परंपरोपपन्नक कहलाते हैं। ७४ ३. गति दंडक - नरक में जाते हुए और नरक में गये हुए जीव गति समापन्नक अथवा नैरयिक पने को प्राप्त हुए जीव गति समापन्नक कहलाते हैं और जिन जीवों ने नरक गति का आयुष्य बांधा है वे द्रव्य नैरयिक अगति समापन्नक कहलाते हैं अथवा चलत्व और स्थिरत्व की अपेक्षा से क्रमशः गति समापन्नक और अगति समापन्नक कहे जाते हैं। ४. प्रथम समय दंडक - जिन जीवों को उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है वे प्रथम समयोपपन्नक और इससे भिन्न (दो तीन आदि) समय में उत्पन्न हुए जीव अप्रथमसमयोपपन्नक कहलाते हैं। ५. आहारक दण्डक आहारक जीव तो हमेशा होते हैं पर अनाहारक तो विग्रह गति में एक समय अथवा दो समय तक होता है। जो त्रस नाडी में मृत्यु को प्राप्त कर पुनः त्रस नाडी में ही उत्पन्न होते हैं उनकी अपेक्षा समझना चाहिये अन्यथा दूसरी प्रकार से तीन समय पर्यन्त अनाहारक होते हैं। प्रश्न- आहारक किसे कहते हैं ? उत्तर - जो जीव सचित, अचित्त और मिश्र अथवा ओज, लोम और प्रक्षेप आहार में से किसी भी प्रकार का आहार करता है वह आहारक जीव है। प्रश्न - Jain Education International - अनाहारक किसे कहते हैं ? उत्तर- जो जीव किसी भी प्रकार का आहार नहीं करता है वह अनाहारक है । विग्रह गति में रहा हुआ, केवली समुद्घात करने वाला, चौदहवें गुणस्थानवर्ती और सिद्ध ये चारों अनाहारक हैं। केवली 'समुद्घात के आठ समयों में से तीसरे, चौथे और पांचवें समय में जीव अनाहारक रहता है। ६. उच्छ्वास दण्डक - जो श्वासोच्छ्वास लेते हैं वे उच्छ्वासक कहलाते हैं। उच्छ्वासक श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्तक होते हैं। इससे विपरीत श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से जो अपर्याप्त हैं वे नोच्छ्वासक कहलाते हैं। ७. इन्द्रिय दंडक - इन्द्रिय पर्याप्ति से पर्याप्तक सेन्द्रिय और इन्द्रिय पर्याति से अपर्याप्तक अनिन्द्रिय कहलाते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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