SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .७२ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 णोउस्सासगा घेव, जाव वेमाणिया ६। दुविहा णेरइया पण्णत्ता तंजहा - सइंदिया चेव अणिंदिया चेव, जाव वेमाणिया ७। दुविहा णेरड्या पण्णत्ता तंजहा - पग्जत्तगा चेव, अपज्जत्तगा चेव, जाव वेमाणिया ८। दुविहा णेरड्या पण्णत्ता तंजहा - सण्णी चेव, असण्णी चेव, एवं जाव पंचेंदिया सव्वे विगलिंदियवग्जा, जाव वेमाणिया (वाणमंतरा)९। __दुविहा णेरड्या पण्णत्ता तंजहा - भासगा चेव, अभासगा चेव, एवमेगिदियवरजा सव्ये १०। दुविहा जेरइया पण्णत्ता तंजहा - सम्मदिट्ठिया चेव मिच्छदिट्ठिया चेव, एगिदियवग्जा सव्वे ११। दुविहा जेरइया पण्णत्ता तंजहा - परित्तसंसारिया चेव, अणंतसंसारिया चेव, जाव वेमाणिया १२। दुविहा णेरड्या पण्णत्ता तंजहा - संखेजकालसमयट्ठिया चेव, असंखेजकालसमयट्टिइया चेव, एवं पंचेंदिया एगिदिय विगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा १३। दुविहा णेरड्या पण्णत्ता तंजहा - सुलभबोहिया चेव, दुलभबोहिया चेव, जाव वेमाणिया १४। दुविहा जेरइया पण्णत्ता तंजहा - कण्हपक्खिया चेव सुक्कपक्खिया चेव, जाव वेमाणिया १५। दुविहा जेरइया पण्णत्ता तंजहा - चरिमा चेव अचरिमा चेव, जाव वेमाणिया १६॥२८॥ .. कठिन शब्दार्थ - अणंतरोववण्णगा - अनन्तरोपपन्नक-प्रथम समय के उत्पन्न, परंपरोववण्णगा- परम्परोपपनक-बहुत समय के उत्पन्न, पढम समयोववण्णंगा - प्रथम समयोत्पन्न, अपढम समयोववण्णगा - अप्रथम समयोत्पन्न, आहारगा - आहारक, अणाहारगा - अनाहारक, उस्सासगा - उच्छ्वासक, णोउस्सासगा - नोच्छ्वासक, सइंदिया - सेन्द्रिय, अणिंदिया - अनिन्द्रिय, विगलिंदियवजा - विकलेन्द्रिय को छोड़ कर, भासगा - भाषक, अभासगा - अभाषक, परित्तसंसारिया - परित्त संसारी, अणंतसंसारिया - अनंत संसारी, संखेजकालझिया - संख्यात काल की स्थिति वाले, असंखेग्जकालट्ठिइया - असंख्यात काल की स्थिति वाले, सुलभबोहिया - सुलभबोधि, दुलभबोहिया - दुर्लभ बोधि, कण्हपक्खिया - कृष्णपाक्षिक, सुक्कपक्खिया - शुक्लपाक्षिक, चरिमा - चरम, अचरिमा - अचरम। ____ भावार्थ - अब चौबीस दण्डक के दो दो भेद बतलाये जाते हैं - नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं यथा भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक। यावत् वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक में इसी प्रकार कहना चाहिए। नैरयिक जीव दो प्रकार के बतलाये गये हैं यथा - अनन्तरोपपन्नक यानी प्रथम समय के उत्पन्न और परम्परोपपन्नक यानी बहुत समय के उत्पन्न यावत् वैमानिक देवों तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy