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________________ स्थान २ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 वि एगइया वेयणं वेयंति, जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं। मणुस्साणं सया समियं जे पावे कम्मे कज्जइ इहगया वि एगइया वेयणं वेयंति, अण्णत्थगया वि एगइया वेयणं वेयंति, मणुस्सवज्जा सेसा एक्कगमा॥२६॥ . कठिन शब्दार्थ - उड्डोववण्णगा - ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले, कप्पोववण्णगा - कल्पोपपन्नक में उत्पन्न होने वाले, विमाणोववण्णगा - विमानोपपनक, चारोववण्णगा - ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होने वाले, चारविइया - चारस्थितिक, गइरइया - गतिरतिक, गइसमावण्णगा - गति समापनक, पावे कम्मे - पाप कर्म, वेयणं - वेदन-उसका फल, वेयंति - भोगते हैं, अण्णत्थगया - दूसरे भव में जाकर, सया - सदा, समियं - समित-निरन्तर, मणुस्सवज्जा - मनुष्यों को छोड़ कर, सेसा - शेष, एक्कगमा - एक समान अभिलापक। भावार्थ - जो देव ऊपर ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं। वे दो प्रकार के हैं - कल्पोपपन्न अर्थात् सौधर्म ईशान आदि देवलोकों में उत्पन्न होने वाले और विमानोत्पन्न अर्थात् अवेयक आदि देवलोकों में उत्पन्न होने वाले कल्पातीत। ज्योतिष्चक्र में उत्पन्न होने वाले देव दो तरह के हैं। यथा - चारस्थितिक यानी ढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिषी देव जो कि एक ही जगह स्थिर रहते हैं और गतिरतिक यानी ढाई द्वीप में चलने फिरने वाले ज्योतिषी देव जो कि निरन्तर गति करते रहते हैं। उन सब देवों के सदा निरन्तर जो पापकर्म बंधता है उसका फल कितनेक देव उसी भव में भोगते हैं और कितनेक दूसरे भव में जाकर उसका फल भोगते हैं। नैरयिक जीवों को सदा निरन्तर जो पापकर्म बंधता है उसका फल कितनेक नारकी जीव उसी भव में भोगते हैं और कितनेक दूसरे भव में भी उसका फल भोगते हैं। यावत् पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि के जीवों तक इसी तरह का अभिलापक कहना चाहिए। मनुष्यों को सदा निरन्तर जो पापकर्म बंधता है उसका फल कितनेक इस भव में भी भोगते हैं और कितनेक दूसरे भव में भी उसका फल भोगते हैं। मनुष्यों को छोड़ कर बाकी सब का एक सरीखा अभिलापक है। - विवेचन - प्रथम उद्देशक के अंतिम सूत्र में पादपोपगमन अनशन का कथन किया गया है। पादपोपगमन अनशन करने वाले कितनेक जीव ऊर्ध्व लोक में वैमानिक देव रूप से उत्पन्न होते हैं। वे देव कैसे हैं ? उनके कर्म बंधन और वेदन का प्रतिपादन उपरोक्त सूत्रों में किया गया है। ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले वे ऊोपपनक देव दो प्रकार के कहे हैं - १. कल्पोपपन्नक - सौधर्म ईशान आदि देवलोक में उत्पन्न होने वाले और २. विमानोपपन्नक - अवेयक और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले। विमानोपफ्नक देव कल्पातीत होते हैं। चार अर्थात् ज्योतिष चक्र क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले देव चारोपपन्नक (ज्योतिषी) कहलाते हैं। ज्योतिषी देव दो प्रकार के होते हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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