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________________ ७० श्री स्थानांग सूत्र १. चार स्थितिक - जिनकी चार यानी ज्योतिष्चक्र क्षेत्र में स्थिरता है वे चार स्थितिक कहलाते हैं ये ढाई द्वीप के बाहर रहते हैं। . . . २. गतिरतिक - गमन में जिनको रति है वे गतिरतिक कहलाते हैं। ये ज्योतिषी देव ढाई द्वीप . में होते हैं। गतिरतिक सतत गति नहीं करने वाले भी होते हैं अतः गति समापन्नक शब्द दिया है। जिसका अर्थ है - गति को विराम नहीं देने वाले अर्थात् निरंतर गति करने वाले। उपरोक्त चारों , प्रकार के देवों के निरंतर कर्म का बंध होता है। जिसका फल कितनेक देव उसी भव में भोगते हैं और कितनेक देव परभव में भोगते हैं। मनुष्य को छोड़ कर शेष तेईस दण्डक के जीवों के कर्म वेदन के विषय में इसी प्रकार दो विकल्प समझना चाहिये। कुछ जीव विपाकोदय की अपेक्षा इस भव में और परभव में भी वेदना का अनुभव नहीं करते, यह विकल्प सूत्र में नहीं कहा गया है क्योंकि यहाँ दूसरे स्थान का वर्णन चल रहा है। मनुष्यों को छोड़ कर बाकी सब के लिए समान अभिलापक कहने का यह अभिप्राय है कि दूसरे जीवों के लिए तो सूत्र में 'तत्थगया' और 'अणत्थगया' ऐसा पाठ है और मनुष्य के लिए 'इहगया' और 'अणत्थगया' ऐसा पाठ है । इस प्रकार मनुष्य के अभिलापक में पाठ का फर्क है। . अथवा दूसरी तरह से भी इसका अभिप्राय समझना चाहिए कि दूसरे जीव तो इस भव में और दूसरे भव में कर्मों का फल भोगते हैं किन्तु कितनेक मनुष्य इसी भव में समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष चले जाते हैं। इसलिए वे दूसरे भव में कर्मों का फल नहीं भोगते हैं। णेरइया दुगइया दुआगइया पण्णत्ता तंजहा - णेरइए णेरइएस उववजमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेव णं से णेरइए णेरइयत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेग्जा। एवं असुरकुमारा वि, णवरं से चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छिज्जा। एवं सव्व देवा। पुढविकाइया दुगइया दुआगइया पण्णत्ता तंजहा - - पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववग्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा णोपुढविकाइएहिंतो वा उववग्जेजा। से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा णोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छेजा। एवं जाव मणुस्सा॥२७॥ कठिन शब्दार्थ - दुगइया - द्वि गतिक-दो गतियों में जाने वाले, दुआगइया - द्वि आगतिकदो गतियों से आने वाले, जेरइएस- नरकों में, उववज्जमाणे - उत्पन्न होता हुआ, मणुस्सेहितो - मनुष्यों से, पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो- पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में से, णेरइयत्तं - नैरयिकपने को, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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