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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 दिशाओं की तरफ मुंह करके मरण के अन्तिम समय में की जाने वाली संलेखना का सेवन कर शरीर और कषायादि का क्षय करने की इच्छा वाले आहार और पानी का त्याग करके मृत्यु की इच्छा न करने वाले साधु और साध्वी को पादपोपगमन संथारा कर समाधि. में स्थित रहना। उपरोक्त १८ क्रियाएं पूर्व दिशा तथा उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके करनी चाहिए। ____ विवेचन - सूत्रकार ने पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुंह करके उपरोक्त १८ धार्मिक कियाएं करने का निर्देश किया है। पूर्व दिशा और उत्तर दिशा शुभ मानी गयी है। दीक्षा देना से लेकर एक साथ रहना ये छह बातें दीक्षा से सम्बन्धित हैं। ये छह ही बातें क्रमशः करनी चाहिए इससे यह बात स्पष्ट होती है कि बड़ी दीक्षा देने के बाद ही नवदीक्षित को एक मण्डली में बिठाकर साथ आहार पानी कराना चाहिए इसके पहले नहीं अर्थात् बड़ी दीक्षा देने से पहले नवदीक्षित का आहार पानी अलग रखना चाहिए। 'संवसित्तए' शब्द का अर्थ तो यह है कि नवदीक्षित को साथ में रखना परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि बड़ी दीक्षा से पहले नवदीक्षित की स्वतन्त्र गवैषणा से आहार पानी नहीं मंगवाना चाहिए। तथा उसके वस्त्रादि को अन्य साधुओं को काम में नहीं लेना चाहिए। बड़ी दीक्षा सुखशान्ति और समाधि पूर्वक सातवें दिन ही कर देनी चाहिए, यह सैद्धान्तिक उत्सर्ग मार्ग है। ध्रुव मार्ग है।
इन दो दिशाओं से साधक को विकास वृद्धि और अभ्युदय की प्रेरणा मिलती है। सभी तीर्थकर साधना काल में उक्त दो दिशाओं के अभिमुख होकर ही साधना करते रहे हैं और केवल ज्ञान होने के बाद भी समवसरण में प्रवचन भी इन्हीं दो दिशाओं की ओर मुंह करके किया करते हैं। जिस मार्ग का प्रभु ने अनुसरण किया है वही मार्ग अनुयायियों के लिए भी प्रशस्त है।
॥इति दूसरे स्थान का पहला उद्देशक समाप्त ।
द्वितीय स्थान का दूसरा उद्देशक जे देवा उडोबवण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्विइया गइरइया गइसमावण्णगा, तेसिणं देवाणं सया समियं जे पावे कम्मे कग्जइ तत्थ गया वि एगइया वेयणं वेयंति, अण्णत्थगया वि एगड्या वेयणं वेयंति। णेरइयाणं सया समियं जे पावे कम्मे कज्जइ तत्थ गया वि एगया वेयणं वेयंति, अण्णस्थगया
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