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________________ स्थान २ उद्देशक १ कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा झूसणा झूसियाणं भत्तपाण पडियाइक्खित्ताणं पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, तंजहा - पाईणं चेव उदीणं चेव।। २५॥ ॥बीअट्ठाणस्स पढमो उद्देसओ समत्तो। कठिन शब्दार्थ - दिसाओ - दिशाओं को, अभिगिझ - स्वीकार करके, णिग्गंथाणं - निर्ग्रन्थ साधुओं को, णिग्गंथीणं - निर्ग्रन्थ साध्वियों को, पव्वावित्तए - प्रवजित करना, पाईणं - पूर्व दिशा, उदीणं - उत्तर दिशा, मुंडावित्तए - मुंडित-केश लोच करना, सिक्खांवित्तए - शिक्षा देना, उवट्ठावित्तए - पांच महाव्रतों में स्थापित करना, संभुंजित्तए - साधु मण्डली में बैठ कर आहार करना, संवसित्तए - साथ रखना अर्थात् आसन पर बैठना, सज्झायमुद्दिसित्तए- स्वाध्याय प्रारम्भ करना, सज्झायं समुहिसित्तए - स्वाध्याय करते हुए सूत्रार्थ को स्थिर परिचित करना, सज्झायमणुजाणित्तएसूत्रार्थ को धारण करने की आज्ञा देना, आलोइत्तए - आलोचना करना, पडिक्कमित्तए - प्रतिक्रमण करना, णिदित्तए - आत्मसाक्षी से निन्दा करना, गरहित्तए- गर्दा करना, विउट्टित्तए - पापों का विच्छेदन करना, विसोहित्तए - आत्मा को निर्मल बनाना, अकरणयाए अब्भुट्टित्तए - फिर पाप न करने की प्रतिज्ञा करना, अहारिहं - यथायोग्य, पायच्छित्तं- प्रायश्चित्त, तवोकम्मं - तप को, पडिवजित्तए - अंगीकार करना, अपच्छिम मारणंतिय - मरण के अंतिम समय में की जाने वाली, संलेहणा - संलेखना, झूसणा - सेवन करना, झूसियाणं - शरीर और कषाय आदि का क्षय करने की इच्छा वाले, भत्तपाण पडियाइक्खित्ताणं - आहार पानी का त्याग करके, कालं - मृत्यु की, अणवकखमाणाण-इच्छा न करने वाले, पाओवगमाणं-पादपोपगमन संथारा कर, विहरित्तए-विचरे। भावार्थ - साधु अथवा साध्वी को पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं को स्वीकार करके अर्थात् इन दो दिशाओं की तरफ मुंह करके निम्न लिखित १७ बातें करना कल्पता है। यथा - १. प्रव्रजित करना यानी दीक्षा देना, २. केशलोच करना, ३. शिक्षा देना यानी सूत्र और अर्थ पढ़ाना तथा पडिलेहणा आदि की शिक्षा देना, ४. महाव्रतों में स्थापित करना अर्थात् बड़ी दीक्षा देना, ५. साधु मण्डली में बैठ कर आहार करना, ६. आसन पर बैठना, ७. स्वाध्याय करना, ८. स्वाध्याय करते हुए सूत्रार्थ को स्थिर परिचित करना, ९. सूत्रार्थ को धारण करने की आज्ञा देना, १०. गुरु आदि के सन्मख अपने पाप की आलोचना करना.११. प्रतिक्रमण करना. १२. अपने पाप की आत्मसाक्षी से निन्दा करना, १३. गर्दा करना अर्थात् गुरुसाक्षी से अपने पापों की निन्दा करना, १४. अपने पापों का विच्छेदन करना, १५. पाप रूपी कीचड़ से अपनी आत्मा को निर्मल बनाना, १६. फिर पाप न करने की प्रतिज्ञा करमा, १७. यथायोग्य प्रायश्चित्त और तप को अङ्गीकार करना। पूर्व और उत्तर इन दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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