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________________ स्थान २ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000. सुख पूर्वक वेदन किया जा सकता है, सुह विमोयतराए - उससे मुक्त होना सहज है, दुहवेयतराए - वेदन करना कठिन है, दुहविमोयतराए - मुक्त होना कठिन है, अट्ठादंडे - अर्थ दण्ड, अणट्ठादंडे - अनर्थ दण्ड। .. भावार्थ - भरत और ऐरवत क्षेत्र में दो प्रकार का काल कहा गया है जैसे कि उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल। दो प्रकार का उन्माद कहा गया है जैसे कि यक्षावेश अर्थात् व्यन्तर आदि किसी देवकृत और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला। इन में जो यक्षावेश से होने वाला उन्माद है वह सुखपूर्वक वेदन किया जा सकता है और उससे मुक्त होना भी सहज ही है किन्तु इनमें जो उन्माद मोहनीय कर्म के उदय से होता है उसका वेदन करना कठिन है और उससे मुक्त होना भी बड़ा कठिन है। दो दण्ड कहे गये हैं जैसे कि अर्थ दण्ड और अनर्थ दण्ड। नैरयिक जीवों में दो दण्डं कहे गये हैं यथा-अर्थ दण्ड और अनर्थदण्ड। इसी प्रकार वैमानिक देवों तक चौबीस दण्डकों में दो दण्डक कहे गये हैं। - विवेचन - दण्ड के दो भेद हैं-१. अर्थदण्ड और २. अनर्थ दण्ड। अपने और दूसरे के लिए त्रस और स्थावर जीवों की जी हिंसा होती है उसे अर्थदण्ड कहते हैं। बिना किसी प्रयोजन के जीव जो हिंसा रूप कार्य करता है, वह अनर्थदण्ड है। चौबीस ही दण्डकों के जीवों में ये दो दण्डक कहे गये हैं। बुद्धि का विपरीतपना अर्थात् बौद्धिक अस्वस्थता को उन्माद कहते हैं। दो प्रकार का उन्माद कहा है - १. यक्षावेश - देवकृत अर्थात् शरीर में व्यन्तर आदि देव के प्रवेश से होने वाला उन्माद और २. मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद। ... दुविहे दंसणे पण्णत्ते तंजहा - सम्मदंसणे चेव, मिच्छादंसणे चेव। सम्मदंसणे दुविहे पंण्णत्ते तंजहा - णिसग्गसम्मदंसणे चेव, अभिगमसम्मदंसणे चेव। णिसग्गसम्म दंसणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - पडिवाई चेव, अपडिवाई चेव। अभिगमसम्मदसणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - पडिवाई चेव, अपडिवाई चेव। मिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - अभिग्गहियमिच्छादंसणे चेव अणभिग्गहिय मिच्छादंसणे चेव। अभिग्गहिय मिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - सपज्जवसिए चेव, अपज्जवसिए चेव। एवं अणभिग्गहिय मिच्छादसणे वि॥२०॥ - कठिन शब्दार्थ - दसणे - दर्शन, सम्मदंसणे - सम्यग्-दर्शन, मिच्छादसणे - मिथ्यादर्शन, णिसग्गसम्मदंसणे - निसर्ग सम्यग् दर्शन, अभिगमसम्मदंसणे - अभिगम सम्यग् दर्शन, पडिवाई - प्रतिपाती, अपडिवाई - अप्रतिपाती, अभिग्गहिय मिच्छादसणे - आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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