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________________ ५२ श्री स्थानांग सूत्र अणभिग्गहिय मिच्छादसणे - अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, सपजवसिए - सपर्यवसित-अन्तसहित, अपजवसिए- अपर्यवसित-अन्तरहित। भावार्थ - दर्शन दो प्रकार का कहा गया है यथा - सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन। सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है यथा - निसर्ग सम्यग्दर्शन यानी स्वभाव से ही जिमोक्त वचनों में रुचि होना मरुदेवी माता के समान और अभिगम यानी गुरु के उपदेश आदि से जिनोक्त वचनों में रुचि होना अभिगम सम्यग्दर्शन है भरतादि के समान। निसर्ग सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि प्रतिपाती यानी प्राप्त होकर फिर चला जाय ऐसा औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और अप्रतिपाती यानी एक बार प्राप्त होने के बाद फिर वापिस न जाने वाला ऐसा क्षायिक सम्यक्त्व। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है यथा - आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन और अनाभिंग्रहिक मिथ्यादर्शन । आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि सपर्यवसित यानी जिसका अन्त है ऐसा, भव्य जीवों का और अपर्यवसित यानी अन्त रहित अभव्य जीवों का। इसी प्रकार अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन के भी सपर्यवसित और अपर्यवसित ये दो भेद होते हैं। . .. विवेचन - दर्शन अर्थात् तत्त्व विषयक रुचि। दर्शन के दो भेद हैं - १. सम्यग्दर्शन - तत्त्वार्थ श्रद्धान् को सम्यग्दर्शन कहते हैं अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय उपशम या क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। २. मिथ्यादर्शन - मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि और अधर्म में धर्म बुद्धि आदि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं - १. निसर्ग सम्यग्दर्शन - पूर्व क्षयोपशम के कारण बिना गुरु उपदेश के स्वभाव से ही श्रद्धा होना निसर्ग सम्यग्दर्शन है। जैसे मरुदेवी माता। २. अभिगम सम्यग्दर्शन - गुरु आदि के उपदेश से अथवा अंग उपांग आदि के अध्ययन से जीवादि तत्त्वों पर रुचि-श्रद्धा होना अभिगम सम्यग्दर्शन है। प्रतिपाति (पडिवाई) और अप्रतिपाति के भेद से निसर्ग सम्यग्दर्शन एवं अभिगम सम्यग्दर्शन के दो दो भेद होते हैं। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा है - १. आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन - तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक एक सिद्धांत (पक्ष) का आग्रह करना और अन्य पक्षों का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन है। २. अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन - गुणदोष की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन है। सपर्यवसित और अपर्यवसित के भेद से आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन और अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन के दो-दो भेद होते हैं। दुविहे णाणे पण्णते तंजहा - पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव। पच्चक्खे णाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - केवलणाणे चेव णो केवलणाणे चेव। केवलणाणे दुविहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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