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स्थान २ उद्देशक १
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आत्मा, केवलिपण्णत्तं - केवलि प्ररूपित, धम्म - धर्म को, सवणयाए - श्रवण करने के लिये, णोनहीं, लभेजा - प्राप्त कर सकता है, आरंभे - आरंभ, परिग्गहे - परिग्रह, केवलं - केवल-शुद्ध, बोहिं - बोधि-सम्यक्त्व को, बुझेजा - प्राप्त कर सकता है, मुंडे - मुण्ड, भवित्ता - हो कर, अगाराओ - अगार अर्थात् घर से एवं गृहस्थावास से निकल कर, अणगारियं - अनगारपने-साधुपने को, पव्वइज्जा - अंगीकार कर सकता है, बंभचेरवासं - ब्रह्मचर्यवास में, आवसेजा - बस सकता है, संजमेणं - संयम से, संजमेजा - संयमित कर सकता है। संवरेणं - संवर से, संवरेजा - संवृत कर सकता है, आभिणिबोहियणाणं - आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), उप्पाडेजा - उत्पन कर सकता है, सुयणाणं - श्रुतज्ञान, ओहिणाणं - अवधिज्ञान, मणपज्जवणाणं - मनःपर्यवज्ञान, केवलणाणं - केवलज्ञान को।
भावार्थ - आरम्भ और परिग्रह के स्वरूप को ज्ञपरिज्ञा से यथावत् जानकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े बिना ग्यारह बातों की प्राप्ति नहीं हो सकती है सो बतलाया जाता है - १. आरम्भ और परिग्रह, इन दो स्थानों को जानकर छोड़े बिना आत्मा केवलिप्ररूपित धर्म को श्रवण करने के लिये प्राप्त नहीं कर सकता है अर्थात् सुन नहीं सकता है। २. आरम्भ और परिग्रह, इन दो स्थानों को जानकर छोड़े बिना आत्मा केवल यानी शुद्ध बोधि यानी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। ३. आरम्भ और परिग्रह, इन दो स्थानों को जानकर छोड़े बिना आत्मा द्रव्य मुण्ड और भाव मुण्ड होकर गृहस्थावास से निकल कर शुद्ध अनगारपने को यानी साधुपने को अङ्गीकार नहीं कर सकता है। ४. इसी प्रकार आरम्भ और परिग्रह को जानकर छोड़े बिना आत्मा शुद्ध ब्रह्मचर्यवास में नहीं बस सकता है अर्थात् शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता है। ५. शुद्ध संयम से अपनी आत्मा को संयमित नहीं कर सकता अर्थात् शुद्ध संयम का पालन नहीं कर सकता है। ६. शुद्ध संवर से आस्रवद्वारों को संवृत नहीं कर सकता है यानी आस्रवों को नहीं रोक सकता है। ७. शुद्ध आभिनिबोधिक यानी मतिज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता है। ८. इसी प्रकार श्रुतज्ञान, ९. अवधिज्ञान, १०. मनःपर्यवज्ञान और ११. केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता है अर्थात् इन शुद्ध पांच ज्ञानों को प्राप्त नहीं कर सकता है।
विवेचन - हिंसा आदि सावध कार्य आरम्भ है। मूर्छा (ममता) को परिग्रह कहते हैं। धर्म साधन के लिए रखे हुए उपकरण को छोड़ कर सभी धन धान्य आदि ममता के कारण होने से परिग्रह है। यही कारण है कि धन धान्य आदि बाह्य परिग्रह माने गये हैं और मूर्छा (ममत्व-गृद्धि भाव) आभ्यन्तर परिग्रह माने गये हैं।
आरम्भ और परिग्रह को ज्ञ परिज्ञा से जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़े बिना जीव को इन ग्यारह बोलों की प्राप्ति नहीं होती है - १. केवली प्ररूपित धर्म नहीं सुन सकता है २. सम्यक्त्व
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