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स्थान २ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पर राग द्वेष करने से लगने वाली क्रिया अजीव प्रातीत्यिकी है। इसी प्रकार सामन्तोपनिपातिकी क्रिया के भी दो भेद हैं। जैसे कि किसी रूपवान् और बलवान् सांड को तथा सुन्दर रथ आदि को देख कर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं उसे सुन कर उसका स्वामी खुश होता है उससे लगने वाली क्रिया जीव सामन्तोपनिपातिकी और अजीव सामन्तोपनिपातिकी कहलाती है।
विवेचन - आरम्भिकी - पृथ्वीकाय आदि छह काया रूप जीव तथा अजीव के आरम्भ से लगने वाली क्रिया को आरम्भिकी क्रिया कहते हैं। इसके दो भेद हैं - १. जीव आरम्भिकी - छह काया के जीवों का उपमर्दन एवं आरंभ करने से २. अजीव आरम्भिकी - जीव रहित शरीर आटे आदि के बनाये हुए जीव की आकृति के पदार्थ या वस्त्र आदि के आरम्भ करने से लगने वाली क्रिया आरम्भिकी क्रिया है। ..
पारिग्रहिकी - 'परिग्रहो धर्मोधकरणवर्जवस्तुस्वीकारः, धर्मोपकरणमूर्छा च, स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी।'
___ अर्थ - धर्मोपकरण जो धर्म की साधना के लिये रखे जाते हैं उनको छोड़ कर अन्य समस्त पर-पदार्थ परिग्रह है। धर्मोपकरणों पर ममता होना भी परिग्रह है। मूर्छा-ममत्व भाव से लगने वाली क्रिया - 'पारिग्रहिकी' है। इसके भी दो भेद हैं - १. जीव पारिग्रहिकी - कुटुम्ब, परिवार, दास, दासी, गाय भैंसादि चतुष्पद, शुक (तोता) आदि पक्षी, धान्य फल आदि स्थावर जीवों को ममत्व भाव से अपनाना २. अजीव पारिग्रहिकी - सोना, चांदी, मकान, वस्त्र, आभूषण, शयन आदि अजीव वस्तुओं पर ममत्व भाव रखना पारिग्रहिकी क्रिया है।
माया प्रत्ययिकी - सरलता का भाव न होना - कुटिलता का होना माया है। क्रोध, मान, माया और लोभ के निमित्त से लगने वाली क्रिया माया प्रत्ययिकी है। इसके दो भेद हैं - १. आत्मभाव बञ्चनता - हृदय की कुटिलता - अन्तर में कुछ और तथा बाहर में कुछ और इस प्रकार आत्मा में ठगाई के भाव होना २. परभाव वञ्चनता - खोटे तोल, नाप आदि से दूसरों को हानि पहुँचाना, विश्वास जमा कर ठग लेना आदि माया प्रत्ययिकी क्रिया है। . ... मिथ्यादर्शन प्रत्यया - जीव को अजीव, अजीव को जीव, धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, साधु को असाधु, असाधु को साधु समझना इत्यादि विपरीत श्रद्धान से तथा तत्त्व में अश्रद्धान आदि से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है। इसके दो भेद हैं - १. न्यूनाधिक मिथ्यादर्शन प्रत्यया - श्री जिनेश्वर देव के कथन से कम अथवा अधिक श्रद्धान करना और २. तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्यया- आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानना अथवा न्यूनाधिक मानना रूप मिथ्यात्व और जीव को अजीव, अजीव को जीव आदि खोटी मान्यता रखना। इसमें अन्य सभी प्रकार के मिथ्यात्व का समावेश हो जाता है।
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