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________________ श्री स्थानांग सूत्र .........0000 00000 000000000000 कठिन शब्दार्थ - आरंभिया - आरम्भिकी, परिग्गहिया पारिग्रहिकी, मायावत्तिया - माया प्रत्ययिकी, मिच्छादंसणवत्तिया - मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी, आयभाववंकणया आत्मभाव वञ्चनता, परभाववंकणया पर भाव वंचनता, मिच्छादंसणवत्तिया - मिथ्यादर्शन प्रत्यया, ऊणाइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया ऊनातिरिक्त (न्यूनाधिक ) मिथ्यादर्शन प्रत्यया, तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तियातद् व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्यया, दिट्ठिया दृष्टिजा या दृष्टिका, पुट्ठिया - पृष्टिजा ( पृष्टिका), पाडुच्चिया - प्रातीत्यिकी, सामंतोवणिवाइया सामन्तोपनिपातिकी । - भावार्थ - दो क्रियाएं कही गई हैं यथा - आरम्भ से लगने वाली क्रिया आरम्भिकी और ममत्व रूप परिग्रह से लगने वाली क्रिया पारिग्रहिकी। आरम्भिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई हैंयथा - जीवों का उपमर्दन एवं आरम्भ से लगने वाली क्रिया जीव आरम्भिकी और मृतकलेवर या वस्त्रादि को बनाने से लगने वाली क्रिया अजीव आरम्भिकी। इसी प्रकार पारिग्रहिकी क्रिया के भी दो भेद हैं- द्विपद चतुष्पद आदि जीवों पर ममता करने से लगने वाली क्रिया जीव पारिग्रहिकी और सोना चांदी आदि पर ममता करने से लगने वाली क्रिया अजीव पारिग्रहिकी। दो क्रियाएं कही गई हैं यथा माया करने से लगने वाली क्रिया मायाप्रत्ययिकी और मिथ्यात्व से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया । मायाप्रत्ययिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा • मन में बुरे परिणाम रख कर बाहर अच्छे भाव बतलाना यह आत्मभाव वञ्चनता है और खोटे लेख आदि लिख कर दूसरों को ठगना यह परभाव वञ्चनता है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया प्रकार की कही गई है यथा - सर्वज्ञ के वचनों से हीनाधिक मानने से लगने वाली क्रिया न्यूनाधिक मिथ्यादर्शन प्रत्यया है जैसे कि आत्मा स्वशरीर व्यापक है उसे तिल बराबर या अंगुष्ठ बराबर मानना अथवा पांच सौ धनुष प्रमाण या सर्वव्यापी मानना । तद्व्यतिरिक्त मिथ्यादर्शन प्रत्यया । जैसे कि आत्मा के अस्तित्व को ही न मानना । दो क्रियाएं कही गई हैं यथा- किसी को देखने से लगने वाली क्रिया दृष्टिजा या दृष्टिका और प्रश्नादि पूछने से लगने वाली क्रिया पृष्टिजा या पृष्टिका अथवा स्पर्श करने से लगने वाली क्रिया स्पृष्टिजा या स्पृष्टिका है। दृष्टिजा क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा- हाथी घोड़ा आदि जीवों को देखने से लगने वाली क्रिया जीव दृष्टिजा या जीवदृष्टिका और चित्र, महल आदि अजीव पदार्थों को देखने से लगने वाली क्रिया अजीव दृष्टिजा या अजीव दृष्टिका । इसी प्रकार पृष्टिजा या स्पृष्टिजा क्रिया के भी दो भेद हैं। यथा- रागद्वेष के वश होकर जीव और अजीव के विषय में पूछना या इन्हें स्पर्श करना जीव पृष्टिजा या जीव स्पृष्टिजा और अजीव पृष्टिजा या अजीव स्पृष्टिजा क्रिया कहलाती है। दो क्रियाएं कही गई हैं यथा प्रातीत्यिकी और सामन्तोपनिपातिकी । प्रातीत्यिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है यथा जीव सम्बन्धी निन्दा और प्रशंसा सुन कर उस पर रागद्वेष करने से लगने वाली क्रिया जीव प्रातीत्यिकी और अजीव सम्बन्धी निन्दा और प्रशंसा सुन कर उस ४२ - Jain Education International - - - - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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