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________________ - स्थान २ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 है। इसके दो भेद हैं - १. स्वहस्तपारितापनिकी - अपने हाथों से अपने या पराए शरीर को परिताप देना २. परहस्तपारितापनिकी - दूसरों के हाथों से अपने या पराए शरीर को परिताप देना।। ... प्राणातिपातिकी - जीवहिंसा से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया है। इसके दो भेद हैं- १. स्वहस्त प्राणातिपातिकी - अपने हाथों से अपने प्राणों या दूसरे के प्राणों का अतिपात (विनाश) करना २. परहस्त प्राणातिपातिकी - दूसरों के हाथों से अपने प्राणों का या दूसरे के प्राणों का अतिपात करना। अप्रत्याख्यानिकी - अप्रत्याख्यान अर्थात् थोड़ा सा भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी है। अथवा अव्रत से जो कर्मबन्ध होता है वह अप्रत्याख्यानिकी क्रिया है। इसके दो भेद हैं - १. जीव अप्रत्याख्यानिकी - जीव विषयक अविरति से होने वाला कर्मबंध। २. अजीव अप्रत्याख्यानिकी - अजीव विषयक.अविरति से होने वाला कर्म बंध। .. यह जीव भूतकाल में अनंत भवों में अनन्त शरीर धारण कर चुका है। यदि मरते समय उस शरीर पर रहे हुए ममत्व का पच्चक्खाण (त्याग) नहीं करता है तो उस शरीर की हड्डी आदि से किसी भी अवयव से जो क्रियाएं आगे होगी वे सभी क्रियाएं उस जीव को लगेगी। इसी प्रकार अपने पास रहे हुए जो तलवार चाकू आदि शस्त्र हैं यदि मरते समय उनका पच्चक्खाण (त्याग) • नहीं किया तो आगे उनसे होने वाली सभी क्रियाएं उस जीव को लगेगी वह जीव चाहे जहां पर हो। अतः प्रत्याख्यान आवश्यक है। दो किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा - आरंभिया चेव, परिग्गहिया चेव। आरंभिया किरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - जीव आरंभिया चेव, अजीव आरंभिया चेव। एवं परिग्गहिया वि। दो किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा - मायावत्तिया चेव, मिच्छादंसणवत्तिया चेव। मायावत्तिया किरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - आयभाववंकणया चेव, परभाव वंकणया चेव। मिच्छादसणवत्तिया किरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - ऊणाइरित्त मिच्छादसणवत्तिया चेव, तव्वइरित्त मिच्छादसणवत्तिया चेव। दो किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा - दिट्ठिया चेव, पुट्ठिया चेव। दिट्ठिया किरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - जीव दिट्ठिया चेव, अजीव दिट्ठिया चेव। एवं पुट्ठिया वि। दो किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा - पाडुच्चिया चेव, सामंतोवणिवाइया चेव। पाडुच्चिया किरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - जीव पाडुच्चिया चेव अजीव पाडुच्चिया चेव। एवं सामंतोवणिवाइया वि॥१४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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