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________________ करने से, भूइकम्मेणं- भूति कर्म करने से, कोउयकरणेणं - कौतुक करने से, उम्मग्गदेसणाए - उन्मार्गदेशना - विपरीत मार्ग का उपदेश देने से, मग्गंतराएणं- मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्ति करते हुए जीव को अन्तराय देने से, कामासंसपओगेणं कामभोगों की अभिलाषा करने से, भिज्जाणियाणकरणेणं ऋद्धि का निदान करने से, अवण्णं - अवर्णवाद, अरिहंतपण्णत्तस्स अरिहंत प्ररूपित । - स्थान ४ उद्देशक ४ भावार्थ - चार प्रकार का अपध्वंस यानी चारित्र का विनाश या चारित्र के फल का विनाश कहा गया है । यथा - आसुरी भावना, आभियोगिकी भावना, सम्मोही भावना, किल्विषिकी भावना । क्रोधी स्वभाव होने से, कलह करने से, आहार, शय्या आदि की प्राप्ति के लिए तप करने से और ज्योतिष आदि निमित्त बता कर आजीविका करने से, इन चार कारणों से जीव असुर देवों में उत्पन्न होने का कर्मबन्ध करते हैं । अपने गुणों का अभिमान करने से, परपरिवाद से यानी दूसरों की निन्दा करने से, भूतिकर्म यानी मंत्र तंत्र गण्डा ताबीज करने से और कौतुककरण यानी सौभाग्य आदि के निमित्त स्नान ' आदि कराने से, इन चार कारणों से जीव आभियोग्य यानी सेवक देवों में उत्पन्न होने का कर्मबन्ध करते हैं । जिनमार्ग से विपरीत मार्ग का उपदेश देने से, मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्ति करते हुए जीव को अन्तराय देने से, कामभोगों की अभिलाषा करने से, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का नियाणा करने से इन चार कारणों से जीव सम्मोही यानी मूढ देवों में उत्पन्न होने का कर्मबन्ध करते हैं । अरिहन्त भगवान् के अवर्णवाद बोलने से, अरिहन्त प्ररूपित धर्म का अवर्णवाद बोलने से, आचार्य महाराज और उपाध्यायजी का अवर्णवाद बोलने से इन चार कारों से जीव किल्विषी देवों में उत्पन्न होने का कर्म बन्ध करते हैं । विवेचन - उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ वें अध्ययन की गाथा २६१ में चार प्रकार की भावना इस प्रकार बतायी गयी है - १. कन्दर्प भावना २. आभियोगिकी भावना ३. किल्विषिकी भावना ४. आसुरी भावना । .. १. कन्दर्प भावना - कन्दर्प करना अर्थात् अट्टहास करना, जोर से बातचीत करना, काम कथा करना, काम का उपदेश देना और उसकी प्रशंसा करना, कौत्कुच्य करना (शरीर और वचन से दूसरे को हंसाने की चेष्टा करना) विस्मयोत्पादक शील स्वभाव रखना, हास्य तथा विविध विकथाओं से दूसरों को विस्मित करना कन्दर्प भावना है। Jain Education International ४२५ २. आभियोगिकी भावना सुख, मधुरादि रस और उपकरण आदि की ऋद्धि के लिए वशीकरणादि मंत्र अथवा यंत्र तंत्र (गंडा, ताबीज ) करना, रक्षा के लिए भस्म, मिट्टी अथवा सूत्र से वसति आदि का परिवेष्टन रूप भूति कर्म करना आभियोगिकी भावना है। ३. किल्विषिकी भावना ज्ञान, केवलज्ञानी पुरुष, धर्माचार्य संघ और साधुओं का अवर्णवाद बोलना तथा माया करनां किल्विषिकी भावना है। - ४. आसुरी भावना - निरंतर क्रोध में भरे रहना, पुष्ट कारण के बिना भूत, भविष्यत और वर्तमान कालीन निमित्त बताना आसुरी भावना है। For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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