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________________ ४२४ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 सम्भोग करता है । कोई एक राक्षस राक्षसी के साथ सम्भोग करता है । चार प्रकार का सम्भोग कहा गया है यथा - कोई एक देव देवी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक देव मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य देवी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है । चार प्रकार का सम्भोग कहा गया है । यथा - कोई एक असुर असुरी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक असुर राक्षसी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक राक्षस असुरी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक राक्षस राक्षसी के साथ सम्भोग करता है । चार प्रकार का सम्भोग कहा गया है । यथा - कोई एक असुर असुरी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक असुर मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य असुरी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है । चार प्रकार का सम्भोग कहा गया है । यथा - कोई एक राक्षस राक्षसी के साथ सम्मोग करता है । कोई एक राक्षस मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य राक्षसी के साथ सम्भोग करता है । कोई एक मनुष्य मनुष्य स्त्री के साथ सम्भोग करता है। विवेचन - स्त्री के साथ संवसन-शयन करना संवास कहलाता है । देव पद से वैमानिक देवों का, असुर शब्द से भवनपतियों का और राक्षस शब्द से सभी वाणव्यंतर देवों का ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार देवियों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। - चार प्रकार का अपध्वंश चउव्विहे अवद्धंसे पण्णत्ते तंजहा - आसुरे, आभिओगे, सम्मोहे, देव किब्बिसे। चउहि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा - कोहसीलयाए, पाहुडसीलयाए, . संसत्ततवोकम्मेणं, णिमित्ताजीवयाए । चउहि ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताए कम्म पगरेंति तंजहा - अत्तुक्कोसेणं, परपरिवाएणं, भूइकम्मेणं, कोउयकरणेणं । चउहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहयाए कम्मं पगरेति तंजहा - उम्मग्गदेसणाए, मग्गंतराएणं, कामासंसपओगेणं, भिजा णियाणकरणेणं। चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा - अरिहंताणं अवण्णं वयमाणे, अरिहंतपण्णत्तस्स. धम्मस्स अवण्णं वयमाणे, आयरियउवज्झायाणं अवण्णं वयमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे॥१९४॥ - कठिन शब्दार्थ - अवद्धंसे - अपध्वंस-चारित्र या चारित्र के फल का विनाश, आसुरे - आसुरी, आभिओगे - आभियोगिकी, सम्मोहे - सम्मोही, देवकिब्बिसे - देव किल्विषिकी, कोहसीलयाए- क्रोधी स्वभाव होने से, पाहुडसीलयाए - कलह करने से, संसत्ततवोकम्मेणं - आहार, शय्या आदि की प्राप्ति के लिए तप करने से, णिमित्ताजीवयाए - ज्योतिष आदि निमित्त बता कर आजीविका करने से, अत्तुक्कोसेणं - गुणों का अभिमान करने से, परपरिवाएणं - परपरिवाद-निन्दा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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