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________________ - स्थान ४ उद्देशक ३ *********000 यथा पृथ्वीकाय अप्काय तेउकाय और वनस्पतिकाय । चार इन्द्रियार्थ यानी इन्द्रियों से जाने वाले विषय स्पृष्ट होकर यानी इन्द्रियों द्वारा छूए जाने पर जाने जाते हैं यथा श्रोत्रेन्द्रिय का विषय, घ्राणेन्द्रिय का विषय, जिह्वा इन्द्रिय का विषय और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय । चार कारणों से जीव और पुंद्गल लोक के बाहर जाने में समर्थ नहीं हो सकते हैं यथा १. गति का अभाव होने से, २. गति में उपकारक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से, ३. रूक्षता के कारण यानी लोक के अन्त में पुद्गल इतने रूक्ष हो जाते हैं कि वे फिर आगे जाने में समर्थ नहीं होते हैं और ४. लोक की मर्यादा होने से जीव और पुद्गल अलोक में नहीं जा सकते हैं, जैसे कि सूर्यमण्डल । विवेचन- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वनस्पतिकाय का एक शरीर अत्यंत सूक्ष्म होने से आंखों द्वारा देखा नहीं जा सकता है। पृथ्वी, अप, तेज और साधारण वनस्पति के अनेक शरीरों के साथ मिलने से दिखाई देते हैं। कहीं कहीं 'णो सुपस्सं' के स्थान पर 'णो सुपस्संति' पाठ है जिसका अर्थ है - आंख से सुखपूर्वक नहीं दिखाई देता है अर्थात् आंख से प्रत्यक्ष दृश्य नहीं है परन्तु अनुमान आदि प्रमाणों से दृश्य है इस प्रकार समझना चाहिये। पांचों ही सूक्ष्म काय के जीवों के एक अथवा अनेक शरीर भी अदृश्य हैं। यहाँ वनस्पति शब्द से साधारण वनस्पति का ही ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक वनस्पति का एक शरीर तो दिखाई देता है। चक्षु इन्द्रिय पदार्थ के पास जाकर उसे ग्रहण नहीं करती किन्तु दूर से ही ग्रहण करती है । इसलिए चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। Jain Education International - - चतुर्विध ज्ञात एवं न्याय चव्वि णाए पण्णत्ते तंजहा आहरणे, आहरण तसे, आहरण तद्दोसे, उवण्णासोवणए । आहरणे चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - अवाए, उवाए, ठवणाकम्मे, पडुप्पण्णविणासी । आहरण तसे चडव्विहे पण्णत्ते तंजहा - अणुसिट्ठी, उवालंभे, पुच्छा, णिस्सावयणे । आहरण तद्दोसे चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - अधम्मजुत्ते, पडिलोमे, अत्तोवणीए, दुरुवणीए । उवण्णासोवणए चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - तव्वत्थुए, तदण्णवत्थुए, पडिणिभे, हेऊ । हेऊ चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - जावए, थावए, वंसए, लूसए । अहवा हेऊ चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे । अहवा हेऊ चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा - अत्थित्तं अस्थि सो हेऊ, अत्थित्तं णत्थि सो हेऊ, णत्थित्तं अस्थि सो हेऊ, णत्थित्तं णत्थि सों हेऊ ॥ १८२ ॥ ३९७ - - कठिन शब्दार्थ - णाए - ज्ञात- दृष्टान्त, आहरणे - आहरण- अप्रसिद्ध अर्थ की प्रतीति कराना, आहरणतद्देसे - आहरण तद्देश, आहरण तद्दोसे- आहरण तद्दोष, उवण्णासोवणए - उपन्यासोपनय, अबाए - अपाय, उवाए उपाय, ठवणाकम्मे स्थापना कर्म, पडुप्पण्णविणासी - प्रत्युत्पन्न विनाशी, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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