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________________ 00 स्थान ४ उद्देशक ३ कठिन शब्दार्थ - इहत्थे - ऐहिक सुखों का अर्थी, परत्थे - पारलौकिक सुखों का अर्थी, हायइघटता है, वडइ - बढ़ता है, आइण्णे- आकीर्ण (जातीवान), खलुंके - खलुंक -गलियार, कंथगा घोड़े जयसंपण्णे - जय सम्पन्न, सीहत्ताए सिंह की तरह, णिक्खंते दीक्षा ग्रहण करता है । भावार्थ - चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक पुरुष ऐहिक सुखों का अर्थी (चाहने वाला होता) है किन्तु पारलौकिक सुखों का अर्थी नहीं है, जैसे- भोगी पुरुष । कोई एक पुरुष पारलौकिक सुखों का अर्थी है किन्तु इहलौकिक सुखों का अर्थी नहीं है, जैसे बालतपस्वी । कोई एक पुरुष ऐहिक सुखों का अर्थी भी है और पारलौकिक सुखों का अर्थी भी है जैसे सुश्रावक । कोई एक पुरुष न तो ऐहिक सुखों का अर्थी है और न पारलौकिक सुखों का अर्थी है जैसे कालशौकस्कि कसाई आदि । चार प्रकार पुरुष कहे गये हैं । यथा कोई एक पुरुष एक से यानी ज्ञान से वृद्धि पाता है किन्तु एक से यानी समकित से हीन होता है जैसे उत्सूत्र प्ररूपक । कोई एक पुरुष एक ज्ञान से वृद्धि पाता है किन्तु दो से यानी समर्पित और विनय से हीन होता है । कोई एक पुरुष दो से यानी ज्ञान और क्रिया से वृद्धि पाता है किन्तु एक समकित से हीन होता है । कोई एक पुरुष ज्ञान और क्रिया इन दोनों से वृद्धि पाता है और समकित और विनय इन दोनों से हीन होता है अथवा कोई एक पुरुष ज्ञान से वृद्धि पाता है और राग से हीन होता है । कोई ज्ञान से वृद्धि पाता है और राग द्वेष दोनों से हीन होता है । कोई ज्ञान और संयम दोनों से बढता है और राग से हीन होता है । कोई ज्ञान और संयम दोनों से बढता है और राग द्वेष दोनों से हीन होता है । अथवा कोई क्रोध से बढता है और माया से हीन होता है । कोई क्रोध से बढता है और माया और लोभ से हीन होता है । कोई क्रोध और मान इन दोनों से बढता है और माया से हीन होता है । कोई क्रोध और मान इन दोनों से बढता है और माया और लोभ इन दोनों से हीन होता है । Jain Education International - - - - - चार प्रकार के घोड़े कहे गये हैं । यथा कोई एक घोड़ा पहले तो आकीर्ण यानी वेगादि गुण युक्त होता है और पीछे भी आकीर्ण यानी वेगादि गुण युक्त ही रहता है । कोई एक घोड़ा पहले तो आकीर्ण होता है किन्तु पीछे खलुंक यानी गलियार एवं अविनीत हो जाता है । कोई एक घोड़ा पहले तो खलुंक होता है किन्तु पीछे आकीर्ण हो जाता है। कोई एक घोड़ा पहले भी खलुंक होता है और पीछे भी खलुंक ही रहता है । इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा कोई एक पुरुष पहले आकीर्ण' यानी विनयादि गुण युक्त होता है और पीछे भी विनयादि गुण युक्त ही रहता है । इस तरह चार भांगे कह देने चाहिए । चार प्रकार के घोड़े कहे गये हैं । यथा कोई एक घोड़ा वेगादि गुण युक्त है और अच्छी तरह से चलता है । कोई एक घोड़ा वेगादि गुण युक्त है किन्तु अविनीत की तरह टेढी चाल से चलता है। कोई एक घोड़ा खलुंक यानी जातिवान् नहीं है किन्तु अच्छी चाल से चलता है । कोई एक घोड़ा जातिवान् नहीं है और अच्छी तरह चलता भी नहीं है। इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा कोई एक पुरुष जातिवान् है और विनयादि गुण युक्त होकर चलता है । इस For Personal & Private Use Only ३९१ - - - www.jalnelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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