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________________ १ स्थान १ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___ कठिन शब्दार्थ - ओसप्पिणी - अवसर्पिणी, सुसमसुसमा - सुषमसुषमा, दुस्समदुस्समा - दुष्षमदुष्षमा, उस्सप्पिणी - उत्सर्पिणी। भावार्थ - जिसमें प्राणियों की आयु शरीरादि की क्रमशः हीनता होती जाय वह अवसर्पिणी काल एक है। उसमें सुषमसुषमा यावत् सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और दुष्षमदुष्षमा ये छह आरे एक एक हैं। जिसमें आयु शरीरादि की क्रमशः वृद्धि होती जाय वह उत्सर्पिणी काल एक है। दुष्षमदुष्षमा यावत् दुष्षमा, दुष्षमसुषमा,सुषमसुषमा, सुषमा और सुषमसुषमा, ये छह आरे एक एक हैं ।। ७ ।। विवेचन - कालचक्र के दो भेद हैं - अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का भेद करते हुए टीकाकार ने इस प्रकार अर्थ किया है - 'ओसप्पिणी' ति अवसप्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वा आयुष्क शरीरादि भावान् हापयतीत्यवसर्पिणी, सागरोपम कोटीकोटी दशक प्रमाणः काल विशेषः। तथा उत्सर्पति - वर्द्धते आरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावान् आयुष्कादीन वर्द्धयति इति उत्सर्पिणी।' ___ अर्थात् जिस काल में प्राणियों की आयु शरीर आदि क्रमशः घटते जाएं, उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिस काल में आयु शरीर आदि वृद्धि को प्राप्त हो उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। दस कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी काल होता है और दस कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण एक उत्सर्पिणी काल होता है। इस तरह बीस कोडाकोडी सागरोपम का एक काल चक्र होता है अवसर्पिणी काल और उत्सपिणी काल के रथचक्र के आरों की तरह छह-छह आरे होते हैं। अवसर्पिणी काल के छह आरे ये हैं - १. सुषम सुषमा - एकान्त सुखमय चार कोटाकोटि सागरोपम परिमाण । २. सुषमा - सुखमय, तीन कोटाकोटि सागरोपम परिमाण। ३. सुषमदुष्षमा - सुख-दुःखमय दो कोटाकोटि सागरोपम परिमाण। ४. दुष्षम सुषमा - दुःख सुखमय-एक कोटाकोटि सागरोपम में ४२ हजार वर्ष कम परिमाण। ५. दुष्षमा - दुःखमय २१ हजार वर्ष परिमाण । ६. दुष्षम दुष्षमा - एकान्त दुःखमय - २१ हजार वर्ष परिमाण। उत्सर्पिणी काल के छह आरे अवसर्पिणी काल से उल्टे क्रम में होते हैं जो इस प्रकार है - १. दुष्पमा दुःषमा - एकान्त दुःखमय - २१ हजार वर्ष परिमाण । २. दुष्षमा - दुःखमय - २१ हजार वर्ष परिमाण। ३. दुष्षम सुषमा - दुःख सुखमय - एक कोटाकोटि सागरोपम ४२ हजार वर्ष कम। . ४. सुषम - दुष्षमा - सुख दुःखमय-दो कोटाकोटि सागरोपम परिमाण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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